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________________ २३० वर्धमानचरितम् लीलामहोत्पलमपास्य कराग्रसंस्थं कर्णोत्पलं च विगलन्मधु यत्र भृङ्गाः। निःश्वाससौरभरता वदने पतन्ति स्त्रीणां मुह मृदुकराहतिमीप्सवश्च ॥१२ आमुक्त मौक्तिकविभूषणरश्मिजालैः श्वेतीकृताखिलदिशो विहरन्ति यस्मिन् । वाराङ्गना, मदसलीलमितस्ततोऽपि योत्स्नां दिवापि सुभगामिव दर्शयन्त्यः १३ यस्मिन्विमानं खचितामलचित्ररत्नच्छायावितानशबलीकृतविश्वदिक्का। बद्धन्द्रचापरचितांशुकगात्रिकेन संलक्ष्यते प्रतिदिनं नितरां दिनश्रीः॥१४ यस्मिन्नहीनवपुरप्यभुजङ्गशीला मित्रानुरागसहितापि कलाधरेच्छा। भाति प्रतीतसुवयःस्थितिरप्यपक्षपाता निवासिजनता ४सरसाप्यरोगा ॥१५ समूह से अत्यन्त उज्ज्वल हैं अर्थात् चाँदनी रात में जिनको सफ़ेदी बढ़ जाती है ) जो मस्तक पर स्थित चूडामणि की किरणों से आकाश को पल्लवित करते हैं ( भवन पक्ष में शिखरों पर लगे हुए पद्मरागमणियों की कान्ति से जो आकाश को लाल-लाल पल्लवों से संयुक्त जैसा करते हैं ) और जिनको उत्सङ्ग-गोदियों में सुन्दर स्त्रियाँ बैठी हैं ( भवन पक्ष में जिनके मध्य में मनोहर स्त्रियाँ निवास करती हैं ) ॥ ११ ॥ जिस नगर में भ्रमर, हाथों के अग्र भाग में स्थित क्रोडाकमल तथा मधु को झरानेवाले कर्णोत्पल को छोड़कर श्वासोच्छ्वास की सुगन्धि में आसक्त तथा कोमल हाथों के आघात के इच्छुक होते हुए बारबार स्त्रियों के मुख पर झपटते हैं ॥ १२ ॥ पहने हुए मुक्तामय आभूषणों की किरणावली से जिन्होंने समस्त दिशाओं को शुक्ल कर दिया है तथा जो दिन के समय भी सुन्दर चाँदनी को दिखाती हुई सो जान पड़ती हैं ऐसी वेश्याएं जिस नगर में मदजनित लीला से सहित इधर-उधर घूमती रहती हैं ॥ १३ ॥ सात खण्डों वाले भवनों में लगे हुए नाना प्रकार के निर्मल रत्नों की कान्ति के विस्तार से जिसने समस्त दिशाओं को चित्र विचित्र कर दिया है ऐसी दिन की लक्ष्मी जहाँ प्रतिदिन इन्द्रधनुष निर्मित वस्त्र को गतिया (ओढनी) को अच्छी तरह बाँधी हुई के समान दिखाई देती है ॥ १४ ॥ जिस नगर में निवास करने वाली ऐसी जनता सुशोभित होती है जो अहोन वपु-नागराज के समान शरीर से सहित होकर भी अभुजङ्गशीला-नाग के स्वभाव से रहित है (परिहार पक्ष में उत्कृष्ट शरीर से युक्त होकर भी व्यभिचारी मनुष्यों के स्वभाव से रहित है ), मित्रानुराग-सूर्य के अनुराग से सहित होकर भी कलाधरेच्छा-चन्द्रमा की इच्छा से रहित है, अर्थात् चन्द्रमा को चाहती है ( परिहार पक्ष में मित्रानुराग-इष्टजनों के प्रेम से सहित होकर कलाधरः-चतुर मनुष्यों की इच्छा से सहित है ) जिसकी सुवयःस्थिति-उत्तम पक्षियों की स्थिति प्रसिद्ध होने पर भी जो अपक्षपाता-पङ्खों के पात से रहित है अर्थात् पक्षी होकर भो जो पङ्खों से नहीं उड़ती है ( परिहार पक्ष में जिनकी सुवयःस्थिति-उत्तम अवस्था को स्थिति प्रसिद्ध होने पर भी जो पक्षपात-विषम व्यवहार से रहित है ) और जो सरस-विष से सहित होकर भी अरोगा-रोग से रहित है (परिहार पक्ष में शृङ्गारादि रसों से सहित होकर भी १. मृदुं म० । २. 'विमानो व्योमयानेऽस्त्री सप्तभूमौ गहेऽपि च' इति विश्वलोचनः । ३. विश्वदिक्काः म० । ४. 'रसः स्वादेऽपि तिक्तादौ शृङ्गारादौ द्रवे रसे।' इति विश्वलोचनः । * स्त्रियाँ किसी कपड़े की चद्दर को पीठ की ओर ओढ़ कर आगे उसकी गाँठ लगा लेती हैं उसे गात्रिका या गतियाँ कहते हैं ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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