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________________ २२९ सप्तदशः सर्गः प्राकारकोटिघटितारुणरत्नभासां छायामयैः परिगता पटलैः समन्तात् । आभाति वारिपरिखा नितरामनेकां सन्ध्याश्रियं विदधतीव दिवापि यत्र ॥८ धौतेन्द्रनीलमणिकल्पितकुट्टिमेषु यत्रोपहाररचितान्यसितोत्पलानि । एकीकृतान्यपि सुनीलतया' प्रयान्ति व्यक्ति पतभ्रमरहुंकृतिभिः समन्तात् ॥९ जैत्रेषवोऽसुमनसो मकरध्वजस्य निस्तेजिताम्बुजरुचोऽशशलक्ष्मभासः। अप्रावृषो नवपयोधरकान्तियुक्ता यस्मिन्विभान्त्यसरितः सरसाः रमण्यः ॥१० अत्युन्नताः शशिकरप्रकरावदाता मूर्धस्थरत्नरुचिपल्लवितान्तरिक्षाः। उत्सङ्ग देशसुनिविष्टमनोजरामाः पौरा विभान्ति भुवि यत्र सुधालयाश्च ॥११ तात्पर्य यह है कि 'आकाशस्यावगाहः' इस आगम वाक्य से जिस प्रकार आकाश, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म,आकाश और काल इन छह द्रव्यों को अवगाह देता है उसी प्रकार वहनगर भी संसार के समस्त पदार्थों को अवगाह देता था उसमें संसार के समस्त पदार्थ पाये जाते थे। जिस प्रकार आकाश भास्वत्-सूर्य, कलाधर-चन्द्रमा और बुध ग्रहों से अध्यासित-अधिष्ठित है उसी प्रकार वह नगर भी भास्वत्कलाधर बुधों-देदीप्यमान कलाओं के धारक विद्वानों से अधिष्ठित था-इन सब का उसमें निवास था। जिस प्रकार आकाश सवृष-वृष राशि से सहित होता है उसी प्रकार वह नगर भी सवृष-धर्म से सहित था व जिस प्रकार आकाश सतार-ताराओं से सहित है उसी प्रकार वह नगर भी सतार-चाँदी, तरुण पुरुष, शुद्ध मोती अथवा मोतियों आदि को शुद्धि से सहित था ॥७॥ जिस नगर में कोट के अग्रभाग में संलग्न लाल रत्नों की कान्ति के प्रतिबिम्ब रूप पटलों के द्वारा चारों ओर से व्याप्त जल की परिखा. दिन के समय भी अनेक संध्याओं की शोभा को धारण करती हुई सी अत्यधिक सुशोभित होती है ॥ ८॥ जिस नगर में धुले हुए इन्द्रनीलमणि निर्मित फर्मों पर उपहार के रूप में रखे हुए नीलकमल, अत्यन्त नीलवर्ण के कारण यद्यपि एकीकृत हो रहे हैं—फर्मों की कान्ति में छिप रहे हैं तो भी चारों ओर से पड़ते हुए भ्रमरों की हुङ्कार से प्रकटता को प्राप्त होते हैं ॥९॥ जिस नगर में ऐसी स्त्रियां सुशोभित हो रही हैं जो कामदेव के विजयी शस्त्र तो हैं परन्तु पुष्प रूप नहीं अर्थात् कामदेव के पुष्पातिरिक्त शस्त्र हैं। जो सूर्य के समान कान्ति से युक्त हैं परन्तु जिन्होंने अम्बुजरुच्-कमलों को कान्ति को निस्तेज-फीका कर दिया है तात्पर्य यह है कि सूर्य की कान्ति तो कमलों को सतेज करती है परन्तु उन्होंने निस्तेज कर दिया है ( परिहार पक्ष में यह अर्थ है कि उन स्त्रियों ने पद्मराग मणियों को कान्ति को फीका कर दिया है ) जो स्त्रियाँ नवपयोधरों-नूतन मेघों की कान्ति से सहित तो है परन्तु प्रावृष्-वर्षा ऋतु नहीं है ( परिवार पक्ष में नतन उठते हए स्तनों की कान्ति से सहित हैं) तथा सरस-सजल तो हैं परन्त नदी नहीं है (परिहार पक्ष में सरस-स्नेह अथवा शृङ्गारादि रसों से सहित हैं ) ॥१०॥ जिस नगर की इस भूमि में ऐसे पौर-नगरवासी जन और सुधालय-चूना से बने हुए पक्के भवन सुशोभित हो रहे हैं जो अत्युन्नत--अत्यन्त उदार हैं ( भवन पक्ष में बहुत ऊँचे हैं ), चन्द्रमा की किरणों के समूह के समान अवदात-उज्ज्वल-निष्कलङ्क हैं ( भवन पक्ष में जो चन्द्रमा की किरणों के १. सलीलतया म० । २. जैत्रैषवः सुमनसः म० । ३. रुचः शशलक्ष्म म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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