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________________ २३२ वर्धमानचरितम् यं प्राप्य रेजुरमलं नरनाथविद्याः संयोजनयन्तमखिलं च फलेन लोकम् । सर्वा दिशो जलधरात्ययमेत्य कालं कान्तिाप्रसादसहितां किमु नोद्वहन्ति ॥२२ दोषो.बभूव गुणिनोऽप्ययमेक एव यस्य प्रतापमतुलं दधतो धरायाम् वक्षःस्थिता प्रियतमापि बलात्पुरस्ताद्यद्भुज्यते सततमिष्टजनेन लक्ष्मीः ॥२३ तस्य प्रिया नरपतेः प्रियकारिणीति नाम्ना बभूव महिषी भुवनैकरत्नम् । यां वीक्ष्य लोचनसहस्रमिदं कृतार्थमद्येत्यमन्यत वृषापि विवाहकाले ॥२४ कि कौमुदी तनुमती नहि साह्नि रम्या दिव्याङ्गनेयमुत सा न विलोलनेत्रा। वीक्ष्येति विस्मयवशादपि मन्यमानो यामर्थनिश्चयमपूर्वजनो न लेभे ॥२५ रेजे परं सहजरम्यतयान्वितोऽपि तां प्राप्य भूपतिरनन्यसमानकान्तिम् । शोभान्तरं व्रजति न प्रतिपद्य हृद्यः किं शारदी शशधरो भुवि पौर्णमासीम् ॥२६ साप्यात्मनः सदृशमेत्य पति मनोजंतं दिद्युते रतिरिव प्रकटं मनोजम् । लोके तथाहि नितरामनुरूपयोगः केषां न दीपयति कान्तिमनन्यसाम्यः ॥२७ से सदा स्पष्ट ही ज्ञाति वंश को अलंकृत करता था ॥ २१ ॥ समस्त लोक को फल से यक्त करने वाले जिस निर्मल-निर्दोष राजा को प्राप्त कर समस्त राजविद्याएं सुशोभित होने लगी थीं सो ठीक ही है क्योंकि निर्मल-कीचड़ आदि दोषों से रहित तथा समस्त लोक को नाना प्रकार के धान्य रूप फल से युक्त करने वाले शरत्काल को प्राप्त कर क्या समस्त दिशाएं प्रसाद से सहित-स्वच्छ कांति को धारण नहीं करती हैं ? ॥ २२ ॥ पृथिवी पर अतुल्य प्रताप को धारण करने वाले जिस राजा के गुणवान् होने पर भी यही एक दोष था कि उस के वक्षस्थल पर स्थित लक्ष्मी अत्यन्त प्रिय होने पर भी उसी के सामने बल पूर्वक निरन्तर इष्ट जनों के द्वारा भोगी जाती थी। भावार्थ-जिस प्रकार किसी की प्रिय स्त्री का कोई अन्य मनुष्य उसी के सामने बलपूर्वक उपभोग करता है तो वह उसका बड़ा भारी दोष माना जाता है उसी प्रकार उस दोष को यहाँ कवि ने लक्ष्मी के उपभोग के विषय में प्रकट किया है परन्तु यहाँ वह दोष लागू नहीं होता। तात्पर्य यह है कि उसकी लक्ष्मी सार्वजनिक कार्यों में उपयुक्त होती थी ॥ २३ ॥ उस राजा की प्रियकारिणी नाम की प्रिय रानी थी जो जगत् का अद्वितीय रत्न थी और विवाह के समय जिसे देखकर इन्द्र ने भी ऐसा माना था कि आज मेरे ये हजार नेत्र कृतकृत्य हो गये ।। २४ ॥ जिसे देखकर अपरिचित मनुष्य, आश्चर्यवश ऐसा मानता हुआ पदार्थ के निश्चय को प्राप्त नहीं होता कि क्या यह शरीरधारिणी चांदनी है ? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि वह दिन में रमणीय नहीं होती, अथवा क्या कोई देवी है, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि वह चञ्चला स्त्री नहीं होती ॥ २५ ॥ स्वाभाविक सुन्दरता से सहित होने पर भी राजा, सिद्धार्थ अनन्यतुल्य कान्ति से युक्त उस प्रियकारिणी को प्राप्त कर अत्यधिक सुशोभित होता था सो ठीक ही है क्योंकि सुन्दर चन्द्रमा, पृथिवी पर शरत्पूर्णिमा को प्राप्तकर क्या अन्य शोभा को प्राप्त नहीं होता है ? ॥ २६ ॥ वह प्रियकारिणी भी अपने अनुरूप उस मनोहर पति को पाकर उस तरह सुशोभित हो रही थी जिस तरह कि काम को प्राप्त कर रति स्पष्ट रूप से सुशोभित होती है, सो ठोक ही हैं १. रमला म०।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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