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________________ २२६ वर्धमानचरितम् विमलाशयं तमुपगम्य विरहितधियोऽपि मानवाः। धर्ममनुपममुदा जगृहुः शमयेन्मृगानपि न किं दयाधीः ॥६० स्वमतार्थसिद्धिमभिवीक्ष्य तमभजत भव्यसंहतिः।। पुष्पभरविनतचूततरुर्न परीयते किमु मुदालिमालया ॥६१ इति वासुपूज्यजिनतीर्थमुरुगुणगणैः प्रकाशयन् । सम्यगकृत स तपः परमं चिरकालमन्ययतिभिः सुदुश्चरम् ॥६२ उपजातिः अथायुरन्ते खलु नासमेकं प्रायोपवेशं विधिना प्रपद्य । ध्यानेन ये॒धयेण विहाय विन्ध्ये प्राणान्मुनिः प्राणतमाप कल्पम् ॥६३ पुष्पोत्तरे पुष्पसुगन्धिदेहो बभूव देवाधिपतिविमाने। तस्मिन्नसौ विंशतिसागरायुर्नाप्नोति किं भूरितपःफलेन ॥६४ वसन्ततिलकम् तं जातमिन्द्रमवगम्य सुराः समस्ताः सिंहासनस्थमभिषिच्य मुदा प्रणेमुः । लीलावतंसमिव पादयुगं तदीयं रक्तोत्पलद्युतिहरं मुकुटेषु कृत्वा ॥६५ को प्राप्त होती हैं उसी प्रकार जनहित के लिये अनेक ऋद्धियां शान्ति के खजाने स्वरूप उन मुनिराज को प्राप्त हुई थीं ।। ५९ ॥ निर्मल अभिप्राय वाले उन मुनिराज के समीप आकर निर्बुद्धि मनुष्य भी अनुपम हर्ष से धर्म ग्रहण करते थे सो ठीक ही है क्योंकि दया से आर्द्रबुद्धिवाला मनुष्य क्या पशुओं को भी शान्त नहीं कर देता? ।। ६० ।। अपने इष्ट प्रयोजन की सिद्धि को देख कर भव्य जीवों की पंक्ति उन मनिराज की उपासना करती थी सो ठीक ही है क्यों कि फूलों के भार से झुका हुआ आमका वक्ष भ्रमरपंक्ति के द्वारा हर्ष से प्राप्त नहीं किया जाता?॥ ६१ ।। इस प्रकार विशाल गुणों के समूह से वासुपूज्य तीर्थंकर के तीर्थ को प्रकाशित करते हुए उन मुनिराज ने चिरकाल तक उस उत्कृष्ट तप को अच्छी तरह किया था जो अन्य मुनियों के लिये अत्यन्त कठिन था ॥ ६२॥ तदनन्तर आयु के अन्त में विधिपूर्वक एक माह का प्रायोपगमनसंन्यास प्राप्त कर उन मुनि ने धर्म्य ध्यान से विन्ध्यगिरि पर प्राण छोड़े और उसके फलस्वरूप प्राणत स्वर्ग को प्राप्त किया ॥ ६३ ॥ उस प्राणत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में वे फूलों के समान सुगन्धित शरीर से सहित बीस सागर की आयुवाले देवेन्द्र हुए सो ठोक ही है क्योंकि यह जीव बहुत भारी तप के फल से किस वस्तु को नहीं प्राप्त होता है ? ॥ ६४ ॥ 'इन्द्र उत्पन्न हुआ है' ऐसा जानकर समस्त देवों ने सिंहासन पर विराजमान उस इन्द्र का हर्ष पूर्वक अभिषेक किया तथा लाल कमल की कान्ति को हरने वाले उनके चरण युगल को क्रोडावतंस-क्रीड़ा भूषण की भांति मकटों पर धारण कर नमस्कार किया। भावार्थ-उनके चरण कमलों में मुकूट झुका कर प्रणाम किया ।। ६५॥ -
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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