SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षोडशः सर्गः निजविग्रहेऽपि हृदि यस्य तनुरपि न विद्यते स्पृहा । तेन विजित इति लोभरिपुः किमु चात्र विस्मयपदं मनीषिणाम् ॥५२ अतिनिर्मलं तमुपगम्य मुनिगुणगणास्तमोपहाः । रेजुरधिकमवदाततमाः स्फटिकाद्रिमिन्दुकिरणा इवोन्नतम् ॥५३ उदपाटयन्मदमुदारमतिरतितरां समूलतः । सङ्गविरहितसमाचरणो मरुदल्पमूलमिव जीर्णपादपम् ॥५४ तपसा दहन्नपि स कर्ममलमखिलमात्मनि स्थितम् । तापमभजत मनागपि न स्वयमेतदद्भुतमहो न चापरम् ॥५५ न तुतोष भक्तिविनतस्य न च परिचुकोप विद्विषे । स्वानुगतयतिजनेऽप्यभवन्न रतः सतां हि समतैव भाव्यते ॥५६ शमसंपदास्थितमुपेत्य तमपि तपसा विदिद्युते । भाति जलधरपथं विमलं रविबिम्बमेत्य किमु नो घनात्यये ॥ ५७ अतिदुःसहादपि चचाल न स निजघृतेः परीषहात् । भीममरुदभिहतोऽपि तटीं समतीत्य याति किमु यादसां पतिः ॥५८ जनताहिताय तमिताश्च शमनिधिमनेकलब्धयः । शीतरुचिमिव शरत्समये शिशिराः सुधारसपरिच्युतो रुचः ॥५९ है ।। ५१ ।। जिनके हृदय में अपने शरीर में भी रञ्चमात्र इच्छा नहीं थी उन्होंने लोभ रूपी शत्रु जीत लिया इसमें बुद्धिमानों के लिये आश्चर्य का क्या स्थान था ? अर्थात् कुछ भी नहीं ॥ ५२ ॥ जिस प्रकार अत्यन्त उज्ज्वल चन्द्रमा की किरणें ऊंचे स्फटिकाचल को पाकर सुशोभित होती हैं उसी प्रकार अज्ञानान्धकार को नष्ट करने वाले मुनि गुणों के समूह उन अतिशय निर्मल मुनिराज को पाकर सुशोभित हो रहे थे ।। ५३ ।। जिस प्रकार थोड़ी जड़वाले जीर्ण वृक्ष को वायु जड़से उखाड़ डालती है उसी प्रकार परिग्रह रहित सम्यक् आचरण के धारक उन उदार बुद्धि मुनिराज ने मद को जड़ से बिलकुल ही उखाड़ डाला था ।। ५४ ॥ आत्मा में स्थित समस्त कर्ममल को तप के द्वारा जलाते हुए भी वे मुनि स्वयं रञ्चमात्र भी ताप को प्राप्त नहीं हुए थे सो ठीक ही है क्योंकि यही एक आश्चर्य है अन्य कुछ नहीं ।। ५५ ।। 'भक्ति से नम्रोभूत मनुष्य पर संतोष नहीं करते थे, शत्रु पर क्रोध नहीं करते थे और अपने अनुगामी मुनिजनों पर राग नहीं करते थे सो ठीक ही है क्योंकि सज्जनों का समभाव ही रहता है ॥ ५६ ॥ शान्ति रूपी संपदा में स्थित उन मुनिराज को पाकर तप भी सुशोभित हो रहा था सो ठीक ही है क्योंकि शरद ऋतु में निर्मल आकाश को प्राप्त कर क्या सूर्य का बिम्ब सुशोभित नहीं होता ? ॥ ५७ ॥ वे अत्यन्त दुःसह परीषह के कारण भी अपने धैर्य से विचलित नहीं हुए थे सो ठीक ही है क्यों कि भयंकर वायु के द्वारा ताडित होने पर भी समुद्र क्या तट को उल्लङ्घन करके जाता है ? ॥ ५८ ॥ जिस प्रकार शरत् काल में शीतल तथा अमृत रस को झराने वाली किरणें चन्द्रमा १. मनीषिणः म० । २. रिति तरां समूलतः म० । २९
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy