SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२७ सप्तदशः सर्गः शार्दूलविक्रीडितम् भावी तीर्थकरोऽयमित्यक्रितं संपूज्यमानः सुरैः ___ अक्षय्यावधिरप्सरोजनवृतो रेमे स तस्मिन्मुदा। औत्सुक्यं गुणसम्पदा गमितयेवालिङ्गयमानो गले नोहारद्युतिहारिहारलतिकाव्याजेन मुक्तिश्रिया ॥६६ इत्यसगकृते वर्द्धमानचरिते नन्दनपुष्पोत्तरगमनो नाम षोडशः सर्गः समाप्तः सप्तदशः सर्गः वसन्ततिलकम् श्रीमानथेह भरते स्वयमस्ति धात्र्या पुञ्जीकृतो निज इवाखिलकान्तिसारः। ... नाम्ना विदेह इति दिग्वलये समस्ते ख्यातः परंजनपदः पदमुन्नतानाम् ॥१. ... गोमण्डलेन धवलेन सदा परीता स्वेच्छानिषण्णहरिणाङ्कितमध्यदेशा। . रात्रौ शिरोरपि चिराय विलोकनीया यत्रेन्दुमूर्तिरिव भात्यटवी समग्रा ॥२ . . क्षेत्रेषु यत्र खलता ललनालकेषु कौटिल्यमम्बुजवने मधुपप्रलापः। पङ्कस्थितिः कमलशालिषु सर्वकालं संलक्ष्यते शिखिकुलेषु विचित्रभावः ॥३ ___ 'यह भावी तीर्थंकर है' ऐसा जानकर जो देवों द्वारा निरन्तर पूजित होता था, जो अविनाशी अवधिज्ञान से सहित था, अप्सराएं जिसे घेरे रहती थीं, और जो गुणरूपी सम्पदा के द्वारा उत्कण्ठा को प्राप्त कराई हुई मुक्तिलक्ष्मी के द्वारा बर्फ की कान्ति को हरने वाली हार लता के बहाने कण्ठ में आलिङ्गित हो रहा था ऐसा वह इन्द्र उस प्राणत स्वर्ग में हर्ष से क्रीड़ा करने लगा। ६६ ॥ इस प्रकार असग कवि कृत वर्द्धमानचरित में राजा नन्दन के पुष्पोत्तर विमान में गमन करने का वर्णन करने वाला सोलहवां सर्ग समाप्त हुआ। सत्रहवां सर्ग अथानन्तर इसी भरत क्षेत्र में एक ऐसा लक्ष्मी संपन्न देश है जो पृथिवी को स्वयं इकट्ठी हुई अपनी समस्त कान्तियों का मानों सार ही है, जो समस्त दिशाओं में विदेह इस नाम से प्रसिद्ध है तथा उत्तम मनुष्यों के रहने का उत्कृष्ट स्थान है ॥ १॥ जो सफ़ेद गायों के समूह से घिरी हुई है तथा जिसका मध्यदेश स्वेच्छा से बैठे हुए हरिणों से अङ्कित है ऐसो जिस देश की समस्त अटवी, रात्रि के समय बालकों के लिये भी चिर काल तक देखने के योग्य चन्द्रमा की मति-चन्द्र मण्डल समान सुशोभित होती है ॥२॥ जिस देश में खलता-खलिहानों का सद्भाव खेतों में ही देखा जाता है वहाँ के मनुष्यों में खलता-दुष्टता नहीं देखी जाती है। कौटिल्य-धुंघुरालापन स्त्रियों के केशों में ही देखा जाता है वहाँ के मनुष्यों में कौटिल्य-माया पूर्ण व्यवहार नहीं देखा जाता। मधुप प्रलाप-भ्रमरों का शब्द कमल वन में ही देखा जाता है वहाँ के मनुष्यों में मधुप प्रलाप
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy