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वर्धमानचरितम्
परमान्तरं च स चकार निरुपममतन्द्रितस्तपः। ध्यानविनयताध्ययनप्रभृति, त्रिगुप्तिधृतभूरिसंवरः ॥३१ अथ कारणानि परिबोधविशदतरधीरभावयत् । तीर्थकरविपुलनाम्न इति प्रगतानि षोडशविधाः 'स भावनाः ॥३२ समभावयत्पथि जिनेन्द्र परिविचरिते विमुक्तये। जातविपुलधृतिरचलितः स चिराय दर्शविशुद्धिमिद्धधीः ॥३३ अपवर्गकारणपदार्थपरिघटितभक्तिभूषितः। नित्यमपि विनयमप्रतिमं स गुरुष्वतिष्ठिपदनिष्ठितादरम् ॥३४ प्रथयाम्बभूव परिगुप्तिममलविधिना समाधिना। शीलवृत्तिपरिवृतेषु सदा स परं व्रतेष्वनतिचारमाचरन् ॥३५ समभावयन्नव पदार्थविधिकथनवाङ्मयं सदा। तत्त्वमखिलजगतः सकलं हतशङ्कमैक्षत पुरःस्थितं यथा ॥३६ स्वमितः कथं व्यपनयामि भवगहनतो दूरन्ततः। नित्यमवकलयतोऽस्य मतिविमला समादिमिति वेगमास्थिता ॥३७
से भयंकर शीत ऋतु का आगमन होने पर रात्रि में बाहर सोते थे सो ठोक ही है क्योंकि समर्थ परुष क्या कठिन कार्य में भी मोह को प्राप्त होता है ? अर्थात नहीं होता ॥ ३०॥ तीन गप्तियों के द्वारा बहत भारी संवर को धारण करने वाले वे मुनि आलस्य रहित होकर ध्यान विनय तथा स्वाध्याय आदि उत्कृष्ट तथा अनुपम अन्तरङ्ग तप को करते थे ॥ ३१ ॥ - तदनन्तर उत्कृष्ट ज्ञान के द्वारा जिनकी बुद्धि अत्यन्त निर्मल थी ऐसे उन मुनि ने तीर्थंकर प्रकृति नामक उत्कृष्ट नामकर्म के प्रसिद्ध कारण भूत सोलह भावनाओं का चिन्तवन किया ॥३२॥ जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा चले हुए मार्ग में जिन्हें बहुत भारी श्रद्धा उत्पन्न हुई थी, जो कभी विचलित नहीं होते थे तथा जो देदीप्यमान बुद्धि से सहित थे ऐसे उन मुनि ने मोक्ष प्राप्ति के लिये चिरकाल तक दर्शन विशुद्धि भावना का चिन्तवन किया था ॥ ३३ ॥ मोक्ष के कारणभूत पदार्थों में उत्पन्न होने वाली भक्ति से विभूषित वे मुनि सदा हो गुरुओं में अत्यधिक आदर के साथ अनुपम विनय को स्थापित करते थे ।। ३४ ॥ शोलरूपी बाड़ो से घिरे हुए व्रतों में सदा निरतिचार प्रवृत्ति करते हुए वे मुनि निर्दोष विधि से युक्त समाधि के द्वारा अच्छा तरह गुप्तियों को विस्तृत करते थे ॥ ३५ ॥ वे नव पदार्थों का विधि पूर्वक कथन करने वाले आगम को सदा भावना करते थे और समस्त जगत् के संपूर्ण तत्त्व को निःशङ्क होकर ऐसा देखते थे मानों उनके सामने ही स्थित हों ॥ ३६ ॥ मैं इस दुरन्त संसार रूपी अटवी से अपने आपको किस तरह दूर हटाऊं इस प्रकार का निरन्तर विचार करने वाले उन मुनि को निर्मल बुद्धि संवेग भाव को प्राप्त हुई थी ॥ ३७॥
१. सुभावनाः म० । २. परिविरचिते म० । ३. विशुद्ध म० । ४. समाधि म० । सम् आदौ यस्य तं तथाभूतं,
समादि वेगस्य विशेषणं संवेगमित्यर्थः ।