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________________ षोडशः सर्ग २२३ स्वमपि स्वकीयमपलौल्यमतिरनिशमात्म'नात्यजत् । लोभलवमपि कथं कुरुते हृदयेऽथवा विदितमुक्तिपद्धतिः ॥३८ अनिगुह्य वीर्यमसमानमकृत स तपस्तपोधनः । भाविनिरुपमसुखस्पृहया मतिमान् व्यवस्यति यथाबलं न कः ॥३९ स समादधे स्वमथ भेदकृति सति च कारणे परम् । धैर्यमवगतपदार्थगतिविजहाति कृच्छ्रपतितोऽपि नाथवा ॥४० गुणिनां चकार स गदेषु निपुणतरधीः प्रतिक्रियाम् । त्यक्तसकलममतोऽपि सदा यतते परोपकृतये हि सज्जनः ॥४१ स बहुश्रुतेष्वथ जिनेषु गुरुषु च परां सदागमे । भावविशदहृदयेन ततो विततान भक्तिमनवद्यचेष्टितः ॥४२ अनपेतकालमथ षट्सु नियमविधिषद्यतोऽभवत् । ज्ञातविमलसकलावगमैन हितोद्यतैरलसतावलम्ब्यते ॥४३ वरवाङ्मयेन तपसा च जिनपतिसपर्यया सदा । धर्ममनवरतमुज्ज्वलयन्समयस्य साधुरकरोत्प्रभावनाम् ॥४४ तृष्णा रहित बुद्धिवाले उन मुनिराज ने अपने आपके द्वारा स्वकीय धन का भी निरन्तर त्याग कर दिया था । सो ठीक ही हैं क्योंकि मुक्तिमार्ग को जानने वाला मनुष्य हृदय में लोभ के कण को भी कैसे कर सकता है ? भावार्थ-बाह्य पदार्थों का त्याग तो वे पहले ही कर चुके थे परन्तु अब जिन आभ्यन्तर पदार्थों में उनकी स्वत्व बुद्धि थी उनका भी उन्होंने त्याग कर दिया था इस तरह वे वे शक्तितस्त्याग भावना का सदा चिन्तवन करते थे ॥३८॥ वे तपोधन अपनी शक्ति न छिपाकर अनुपम तप करते थे सो ठीक ही है क्योंकि आगे होने वाले असाधारण सुख की इच्छा से कोन बुद्धिमान् मनुष्य यथाशक्ति उद्योग नहीं करता है ? ॥ ३९ ॥ वे भेदक कारण के उपस्थित होने पर अपने आपको सदा अच्छी तरह समाहित रखते थे-समाधि को भावना रखते थे अथवा ठोक ही है क्योंकि पदार्थ की गति को जानने वाला मनुष्य कष्ट में पड़ा हुआ भी धैर्य को नहीं छोड़ता है ॥४०॥ अत्यन्त निपुण बुद्धि को धारण करने वाले वे मुनि गुणोजनों को रोग होने पर उनका प्रतिकार करते थे अर्थात् वैयावृत्त्य भावना का पालन करते थे सो ठीक ही है क्योंकि जिसने सबसे ममता बुद्धि छोड़ दी है ऐसा सज्जन भी सदा परोपकार के लिये प्रयत्न करता हैं ।। ४१ ॥ तदनन्तर निर्दोष चारित्र का पालन करने वाले वे मुनि भाव पूर्ण निर्मल हृदय से बहुश्रुत, अर्हन्त, आचार्य तथा प्रवचन में सदा उत्कृष्ट भक्ति को विस्तृत करते थे॥ ४२ ॥ उसके पश्चात् वे छह आवश्यक कार्यों में-समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग इन छह अवश्य करने योग्य कार्यों में यथासमय उद्यत रहते थे सो ठीक ही है क्योंकि समस्त पदार्थों का निर्मल ज्ञान प्राप्त करने वाले आत्महित के उद्यमी मनुष्य आलस्य भावको धारण नहीं करते ॥ ४३ ॥ उत्कृष्ट आगम ज्ञान से, तप से तथा जिनेन्द्र भगवान् की पूजा से निरन्तर धर्म को उज्ज्वल करते हुए वे मुनि सदा धर्म १. मात्मना त्यजन् म० । २. मतिमात्रिवस्यति म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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