SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१४ वर्धमानचरितम् परा विहायोगतिरप्रशस्ता तथा प्रशस्ता च शुभाशुभौ च । स्थिरास्थिरौ सुस्वरदुःस्वरौ च पर्याप्तकोच्छ्वासकदुर्भगाश्च ॥१८० प्रत्येककायोऽप्यशःपदादिकोतिस्त्वनादेयसमाह्वया च । निर्माणकर्मप्रकृतिश्च नोचैर्गोत्रं च पञ्चापि शरीरबन्धाः ॥१८१ संस्थानषट्कं त्रिशरीरकाङ्गोपाङ्गं च षट्संहननं द्विगन्धम् । हन्तीत्युपान्ते समये नृपैता द्वासप्तति च प्रकृतीरयोगः ॥१८२ वेद्यद्वयोरन्यतरं नराणामायुर्गतिश्चापि तदानुपूर्वी । जातिश्च पञ्चेन्द्रियशब्दपूर्वा पर्याप्तकारख्यस्त्रसबादरौ च ॥१८३ सुतीर्थकत्वं सुभगो यशः स्यात्कीर्तिस्तदादेयसमुच्चगोत्रे । त्रयोदशैताः प्रकृतीः समं च हिनस्ति सान्त्ये समये जिनेन्द्रः॥१८४ व्यपेतलेश्यः प्रतिपद्य भाति शैलेशिभावं नितरामयोगः । विराजते वारिदरोधमुक्तो निशासु खे किं न शशी समग्रः ॥१८५ शार्दूलविक्रीडितम् 'भावानां खलु मुक्तिरौपशमिकादीनामभावात्परं भव्यत्वस्य च भव्यसत्त्वसमितेरुत्कण्ठमातन्वती। सम्यक्त्वादथ केवलावगमनाद् दृष्टश्च सिद्धत्वतः स्यादत्यन्तनिरञ्जनं निरुपम सौख्यं परं बिभ्रती ॥१८६ उपजातिः 'आविष्टपान्तादथ याति सौम्य कर्मक्षयानन्तरमूर्ध्वमेव । एकेन मुक्तः समयेन मुक्तिश्रियाप्यमूर्तः परिरभ्यमाणः ॥१८७ उपघात. परघात, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति, शुभ, अशुभ, स्थिर, अस्थिर, सुस्वर. दःस्वर, अपर्याप्तक, श्वासोच्छ्वास, दुर्भग, प्रत्येक वनस्पति, अयशस्कोति, अनादेय, निर्माण, नीचगोत्र, पाँच बन्धन, छह संस्थान, तीन अङ्गोपाङ्ग, छह संहनन और दो गन्ध इन बहत्तर प्रकृतियों को अयोगकेवली उपान्त समय में नष्ट करते हैं ।। १७८-१८३ ॥ उसके पश्चात् वेदनीय के दो भेदों में से कोई एक भेद, मनुष्यायु, मनुष्य गति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, पञ्चेन्द्रिय जाति, पर्याप्तक, बस, बादर, तीर्थकर, सुभग, यशस्कीति, आदेय और उच्चगोत्र इन तेरह प्रकृतियों को अन्त्य समय में एक ही साथ अयोगी जिनेन्द्र नष्ट करते हैं ।। १८४-१८५ ।। इस प्रकार जिनकी समस्त लेश्याएं नष्ट हो चुकी हैं, तथा जो शील के ऐश्वर्य ( अठारह हजार शीलभेदों के स्वामित्व ) को प्राप्त हुए हैं ऐसे अयोगी जिनेन्द्र अत्यन्त सुशोभित होते हैं सो ठीक ही है क्योंकि मेघों के आवरण से रहित पूर्ण चन्द्रमा रात्रि के समय क्या आकाश में सुशोभित नहीं होता? ॥ १८६ ॥ ___अत्यन्त निरञ्जन, निरुपम और उत्कृष्ट सुख को धारण करती तथा भव्यजीवों के समूह की १. औपशमिकादिभव्यत्वानाञ्च ।।३।। केवल सम्यक्त्वज्ञानदर्शन सिद्धत्वेभ्य : ॥४॥ त०सू०अ० १० २. तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकान्तात् ॥५॥
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy