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________________ पञ्चदशः सर्गः २१५ 'पूर्वप्रयोगान्नियमप्रकृष्टादसङ्गकत्वाच्च विबन्धलेपात् ।। गतिस्वभावस्य तथाविधत्वान्मुक्तात्मनामूर्द्धवगतेः प्रसिद्धिः ॥१८८ शार्दूलविक्रीडितम् २सौम्याविद्धकुलालचक्रवदथो निर्लेपकालाबुवत् वातारिक्षुपबीजवच्छिखिशिखावच्चेति तत्त्वैषिभिः । सदृष्टान्तचतुष्टयं निगदितं पूर्वोदितानां क्रमाद्धेतूनां परिनिश्चयाय च गतेः सद्भिश्चतुर्णामपि ॥१८९ उपजातिः धर्मास्तिकायस्य न यान्त्यभावात्ततः परं सिद्धिसुखोत्कसिद्धाः। धर्मास्तिकायादिविजितत्त्वादलोकमाहुः परमिद्धबोधाः ॥१९० उत्कण्ठा को बढ़ाती हुई यह मुक्ति निश्चय से सम्यक्त्व केवलज्ञान केवल दर्शन और सिद्धत्व भाव को छोड़कर शेष औपशमिक आदि भावों तथा भव्यत्वभाव के अभाव से होती है ॥ १८७ ॥ हे सौम्य ! जो अमूर्तिक होने पर भी मुक्ति रूप लक्ष्मो के द्वारा आलिङ्गित हो रहे हैं ऐसे सिद्ध जीव कर्मक्षय के अनन्त र एक ही समय में लोक के अन्त तक ऊपर की ओर हो जाते हैं ॥ १८८ ॥ नियम से प्रकृष्टता को प्राप्त हुए पूर्वप्रयोग, असङ्गत्व, बन्धच्छेद तथा तथाविधगति-स्वभाव के कारण मुक्त जीवों की ऊर्ध्वगति ही होती है ॥ १८९ ॥ हे भद्र ! ऊपर कहे हुए गति के चार कारणों का निश्चय कराने के लिये तत्त्व के अभिलाषी पुरुषों ने घुमाये हुए कुम्भकार के चक्र के समान, निर्लेप तुम्बोफल के समान, एरण्ड के बीज के समान और अग्नि की शिखा के समान ये चार दष्टान्त कहे हैं । भावार्थ-मुक्त जीव का ऊर्ध्व गमन ही क्यों होता है ? इसके लिये कवि ने पूर्व श्लोक में पूर्व प्रयोगादि चार हेतु बतलाये थे और इस श्लोक में उन हेतुओं के चार दृष्टान्त बतलाये हैं। उनका स्पष्ट भाव यह है कि जिस प्रकार कुम्भकार अपने चक्र को घुमाते घुमाते छोड़ देता है पर कुछ समय तक वह चक्र संस्कार वश अपने आप घूमता रहता है उसी प्रकार यह जीव लोक के अन्त में स्थित मोक्ष को प्राप्त करने के लिये अनादि काल से प्रयत्न करता आ रहा है । अब वह प्रयत्न छूट जाने पर भी उसी संस्कार से यह जीव ऊपरकी ओर ही गमन करता है। पूर्वप्रयोग के लिये एक दृष्टान्त हिंडोलना का भी दिया जाता है। दूसरा दृष्टान्त निर्लेप तुम्ब्रीफल का दिया है। जिस प्रकार मिट्टी के लेप से सहित तुम्बीफल पानी में डूबा रहता है उसी प्रकार कर्म के लेप से सहित जीव संसार सागर में डूबा रहता है परन्तु मिट्टी का लेप छूटने पर जिस प्रकार तुम्बीफल स्वयं ऊपर आ जाता है उसी प्रकार कर्मलेप छूटने पर यह जीव स्वयं ऊपर की ओर गमन करने लगता है। तीसरा दृष्टान्त एरण्ड के बीज का है जिस प्रकार एरण्ड का बोज फली के बन्धन से छूटते ही ऊपर की १. पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद्बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च ॥६॥ २. आविद्धकुलालचक्रवद् व्यपगतलेपालाबुव देरण्डबीजवदग्निशिखावच्च ॥७॥ ३. धर्मास्तिकायाभावात् ॥७॥
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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