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________________ पञ्चदशः सर्गः २१३ एकेन्द्रियादिश्चतुरिन्द्रियान्ता चतुर्विधा जातिरथातपश्च । उद्योतकस्थावरसूक्ष्मसंज्ञा साधारणाख्या प्रकृतिश्च राजन् ॥१७२ क्षिणोति शुद्धचा सहितोऽनिवृत्तिस्थाने स्थितः सन्निति षोडशैताः । ततः कषायाष्टकमेकवारं तत्रैव नष्टं क्रियते यतीशा ॥१७३ नपुंसकं वेदमथ क्षिणोति स्त्रीवेदमप्याहितशुद्धवृत्तः । ततः परं तत्र च नोकषायषटकं च धोरो युगपत्समस्तम् ॥१७४ तत्रैव पुंवेदमथो विहन्ति पृथक्पृथक् संज्वलनत्रयं च । लोभोऽपि सूक्ष्मादिकसाम्परायस्यान्ते क्षयं संज्वलनः प्रयाति ॥१७५ ततः क्रमाक्षीणकषायवीतरागोपदेशं समधिष्ठितस्य । उपान्तिमे द्वाक समये निकामं निद्रा विनाशं प्रचला च याति ॥१७६ 'ज्ञानावृतिः पञ्चविधा च दृष्टयावृतिश्चतुर्भेदयुता च तस्य । पञ्चप्रकारश्च तथान्तरायो विनाशमन्त्ये समये प्रयाति ॥१७७ अथ द्वयोरन्यतरश्च वेद्यो दैवीगतिस्तत्प्रकृतानुपूर्वी । औदारिकं वैक्रियिकं शरीरमाहारकं तैजसकार्मणे च ॥१७८ स्पर्शाष्टकं पञ्च रसाः शरीरसंघातकाः पञ्च च पञ्चवर्णाः । लघुश्च पूर्वी निहितागुरुश्च तथोपघातः परघातकश्च ॥१७९ निद्रा, प्रचला प्रचला, स्त्यानगृद्धि, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय को आदि लेकर चतुरिन्द्रिय पर्यन्त चार जातियां, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियों का क्षय करता है । इसके अनन्तर उसी नवम गुणस्थान में मुनिराज के द्वारा अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ सम्बन्धी आठ कषाय एक साथ नष्ट किये जाते हैं ।। १७१-१७४ ।। तदनन्तर शुद्धचारित्र को धारण करता हुआ यह धीर वीर मुनि नपुंसक वेद, स्त्री वेद तथा हास्यादिक छह नोकषायों को उसी नवम गुणस्थान में समस्त रूप से एक साथ नष्ट करता है ॥ १७५ ॥ उसके पश्चात् उसी गुणस्थान में पुवेद तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया का पृथक्-पृथक् क्षय करता है । इतनी प्रकृतियों काक्षयकर यह मुनि सूक्ष्मसाम्पराय नामक दशम गुणस्थान को प्राप्त होता है। उसके अन्त में संज्वलन लोभ भी क्षय को प्राप्त होता है ॥ १७६ ।। तदनन्तर जो क्रम से क्षीण कषाय वीतराग संज्ञा को प्राप्त हुए हैं ऐसे मुनिराज के उस गुणस्थान के उपान्त्य समय में शीघ्र ही एक साथ निद्रा और प्रचला ये दो प्रकृतियां क्षय को प्राप्त होती हैं ॥ १७७ ॥ और उसी गणस्थान के अन्त समय में पांच प्रकार का ज्ञानावरण, चार प्रकार का दर्शनावरण और पांच प्रकार का अन्तराय कर्म विनाश को प्राप्त होता है ॥ १७८ ॥ तदनन्तर हे राजन् ! वेदनीय कर्म के दो भेदों में से कोई एक भेद देवगति, देवगत्यानपूर्वी, औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण ये पांच शरीर, आठ स्पर्श, पाँच रस, पाँच संघात, पाँच वर्ण, अगरुलघु, १. श्लोकोऽयं म प्रतौ नास्ति ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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