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________________ २१२ वर्धमानचरितम् शान्ताशेषकषायकः क्षयकरः प्रक्षीणमोहो जिनो नासंख्येयगुणक्रमान्ननु भवत्येषां परा निर्जरा ॥१६६ मालमारिणी इति संवरनिर्जरानिमित्तं द्विविधं सत्परिकीर्तितं तपस्त्वम् । शृणु संश्रयणीयमेकबुद्धया क्रमतो मोक्षमतस्तवाभिधास्ये ॥१६७ उपजातिः 'बन्धस्य हेतोनितरामभावात्सुसंनिधानादपि निर्जरायाः। समस्तकर्मस्थितिविप्रमोक्षो मोक्षो जिनेन्द्ररिति संप्रणीतः ॥१६८ प्रागेव मोहं सकलं निरस्य गत्वाथ च क्षीणकषायसंज्ञाम् । विबोधदृष्टयावरणान्तरायान्हत्वा ततः केवलमभ्युपैति ॥१६९ चतुर्वथासंयतपूर्वसम्यग्दृष्टयादिषु प्राक् सुविशुद्धियुक्तः। स्थानेषु कस्मिश्चिदपि क्षिणोति मोहस्य सप्त प्रकृतीरशेषाः॥१७० निद्रादिनिद्रा प्रचलास्वपूर्वा गृद्धिस्तथा स्त्यानपदादिपूर्वा । श्वभ्रा गतिस्तत्सदृशानुपूर्वी तिर्यग्गतिस्तत्प्रकृतानुपूर्वी ॥१७१ श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करने वाला, दर्शन मोह का क्षपक, तथा चारित्र मोह का उपशमक, क्षपक, शान्तमोह, क्षीणमोह और जिन इन सब के असंख्यात गुण क्रम से उत्कृष्ट निर्जरा होती है ॥ १६६ ।। इस प्रकार संवर और निर्जरा के निमित्तभूत दो प्रकार में सम्यक् तप का वर्णन किया, अब तूं अच्छी तरह आश्रय करने योग्य मोक्ष तत्त्व को एकाग्र बुद्धि से धारण कर, इसके आगे तेरे लिये मोक्ष का निरूपण करूंगा ॥ १६७ ।। बन्ध के कारणों का अत्यन्त अभाव तथा निर्जरा का अच्छी तरह सन्निधान प्राप्त होने से समस्त कर्मों की स्थिति का बिलकुल छूट जाना मोक्ष है ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है ।। १६८ ।। सम्पूर्ण मोहनीय कर्म का पहले ही क्षय कर यह जीव क्षीण कषाय संज्ञा को प्राप्त होता है उसके बाद ज्ञानावरण दर्शनावरण तथा अन्तराय का क्षय कर केवलज्ञान को प्राप्त होता है ॥ १६९ ।। असंयत सम्यग्दृष्टि आदि चार गुण स्थानों में से किसी गुणस्थान में अत्यन्त विशुद्धि से युक्त होता हुआ यह जीव सबसे पहले मोह की सात प्रकृतियों ( मिथ्यात्व. सम्यङिमथ्यात्व. सम्यक्त्व प्रकृति और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ) का सम्पूर्ण रूप से क्षय करता है ॥ १७० ॥ हे राजन् ! उसके पश्चात् विशुद्धि सहित अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थान में स्थित होता हुआ निद्रा १. 'बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः' तन्म० अ० १० सू० २ । १ मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शना वरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् त०सू०अ० १० सू० १ ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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