SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चदशः सर्गः वंशस्थम् ततः समुच्छिन्नपदादिकक्रिया निर्वार्तना ध्यानवरेण कर्मणाम् । निरस्य शक्ति सकलामयोगतां प्रपद्य निर्वाणमुपैति केवली ॥१६४ पृथ्वी स्वपूर्वकृतकर्मणां च्युतिरुदीरिता निर्जरा द्विभेदमुपयात्यसाविति विपाकजा पाकजा । पचन्ति भुवि कालतः परमुपायतो योग्यतो वनस्पतिफलानि मनुजनाथ कर्माण्यपि ॥ १६५ शार्दूलविक्रीडितम् सम्यग्दृष्टिरुपासकश्च विरतः संयोजनोद्वेष्टको २११ मोहस्य क्षपकस्तथोपशमको दृष्टेश्चरित्रस्य च । आहारक, वैक्रियिक और लोकपूरण ये सात भेद हैं । लोकपूरण समुद्घात उन सयोगकेवली भगवान् होता है जिनके आयु कर्म की स्थिति अल्प और शेष तीन कर्मों की स्थिति अधिक हो। इस समुद्घात के पहले समय में आत्मा के प्रदेश अधोलोक से लेकर लोक के अन्तिम भाग तक दण्ड के आकार होते हैं, दूसरे समय में कपाट के समान चौड़े हो जाते हैं, तीसरे समय में वातवलय को छोड़कर समस्त लोक में फैल जाते हैं और चौथे समय में वातवलयों सहित समस्त लोक में फैल जाते हैं अगले चार समयों में क्रम से संकोचित होकर शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं । इस समुद्धत की क्रिया से शेष तीन कर्मों की स्थिति घटकर आयु के बराबर हो जाती है । जो केवली भगवान् समुद्धात के बाद पहले के समान स्वरूपस्थ हो जाते हैं तब तृतीय शुक्ल ध्यान को धारण करते हैं । यह ध्यान तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में होता है ।। १६३ ।। तदनन्तर केवली भगवान् अयोग अवस्था को प्राप्त हो समुच्छिन्न क्रिया निर्वात नामक उत्कृष्ट ध्यान के द्वारा कर्मों की समस्त शक्ति को नष्ट कर निर्वाण को प्राप्त होते हैं ।। १६४ ॥ हे राजन् ! अपने पूर्वंकृत कर्मों का छूटना निर्जरा कही गई है । यह निर्जरा विपाकजा और अविपाकजा, इस तरह दो भेदों को प्राप्त होती है । जिस प्रकार पृथिवी पर वृक्षों के फल समयानुसार स्वयं पकते हैं और योग्य उपाय से असमय में भी पकते हैं उसी प्रकार कर्म भी समयानुसार - उदयावली को प्राप्त निषेक रचना के अनुसार स्वयं निर्जरा को प्राप्त होते हैं और तपश्चरणादि योग्य उपाय से असमय में भी पकते हैं - निर्जरा को प्राप्त होते हैं । भावार्थ - उदयावली को प्राप्त निषेक रचना के अनुसार जो कर्म परमाणु निर्जीर्णं होते हैं वह सविपाक निर्जरा है और तपश्चरणादि के निमित्त से असमय में भी जो कर्म निर्जीर्ण होते हैं वह अविपाक निर्जरा है ।। १६५ ॥ सम्यग्दृष्टि, १. निवृत्तिना व०म०
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy