SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्धमानचरितम् शार्दूलविक्रीडितम् अम्मःकायिकसत्त्वहिंसनभिया स्नानक्रियामामृतेः प्रत्याख्यातबलोऽपि दुःसहतरा कण्डूतिमुद्घाटयत् । आरोहन्मलसम्पदा प्रतिदिनं वल्मीकभूतं वपु बिभ्राणस्य परीषहो मलकृतो निश्चीयते योगिनः ॥१२० - इन्द्रवज्रा ज्ञाने तपस्यप्यकृताभिमानो' निन्दाप्रशंसादिषु यः समानः । पूजापुरस्कारपरीषहस्य जेता स धीरो मुनिरप्रमादः ॥१२१ वसन्ततिलकम् तीर्णाखिलश्रुतमहाम्बुनिधेः पुरस्तादन्ये ममाल्पमतयः पशवो न भान्ति । इत्यादिकं मतिमदं जहतोऽवसेयः प्रज्ञापरीषहजयो हतमोहवृत्तेः ॥१२२ किञ्चिन्न वेत्ति पशुरेष विषाणहीनो लोकैरिति प्रतिपदं खलु निन्दितोऽपि । शान्ति न मुञ्चति मनागपि यः क्षमावानज्ञानजां विषहते स परीषहातिम् ॥१२३ शार्दूलविक्रीडितम् . वैराग्यातिशयेन शुद्धमनसस्तीर्णागमाम्भोनिधेः सन्मार्गेण तपस्यतोऽपि सुचिरं लब्धिर्न मे काचन । २संजातेत्यविनिन्दतः प्रवचनं संक्लेशमुक्तात्मन स्तस्यादर्शनपीडनैकविजयो विज्ञायते श्रेयसे ॥१२४ जल कायिक जीवों को हिंसा के भय से जिसने मरण पर्यन्त के लिये स्नान क्रिया का त्याग कर दिया है तथा जो दुःख से सहन करने योग्य खाज को प्रकट करने वाले और प्रतिदिन चढ़ते हुए मैल के कारण वामी के आकार परिणत शरीर को धारण कर रहा है उस योगी के मलकृत परिषह का निश्चय किया जाता है अर्थात् वह मल परीषह को जीतता है ।। १२० ॥ जो ज्ञान और तप में अभिमान नहीं करता है तथा निन्दा और प्रशंसा आदि में समानमध्यस्थ रहता है वह प्रमाद रहित धीर वीर मुनि सत्कार पुरस्कार परिषह को जोतने वाला कहा जाता है ॥ १२१ ॥ समस्त शास्त्र रूपी समुद्र को पार करने वाले मेरे आगे अन्य अल्प बुद्धि अज्ञानी सुशोभित नहीं होते हैं इस प्रकार के बुद्धि मद को जिसने छोड़ दिया है तथा जिसकी मोह पूर्ण वृत्ति नष्ट हो चुकी है ऐसे मुनि के प्रज्ञा परीषह जय जानना चाहिये ॥ १२२ ॥ यह सोंग रहित पशु कुछ नहीं जानता है। इस प्रकार पद पद पर लोगों के द्वारा निन्दित होने पर भी जो रञ्चमात्र भी क्षमा को नहीं छोड़ता है वह क्षमा का धारक साधु अज्ञान से उत्पन्न होने वाली परीषह की पीड़ा को सहन करता है ।। १२३ ।। वैराग्य की प्रकर्षता से मेरा मन शद्ध है, मैंने आगमरूपी समद्र को पार किया है. और समोचोन मार्ग से मैं चिरकाल से १. -भिमाने म० । २. संजातेत्यविनिन्दितप्रवचनं म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy