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पञ्चदशः सर्गः
उपजाति: चारित्रमाद्यं कथितं जिनेन्द्रः सामायिकं तद् द्विविधं प्रतीहि । कालेन युक्तं नियतेन' चैकं तथा परं चानियतेन राजन् ॥१२५
स्रग्धरा छेदोपस्थापनाख्यं निरुपमसुखदं मुक्तिसोपानभूतं
चारित्रं तद् द्वितीयं दुरितविजयिनां जैत्रमास्त्रं मुनीनाम् । प्रत्याख्यानप्रमावस्खलननियमनं स्वागमानुक्रमेण
छेदोपस्थापनेति प्रकथितमथवा याऽनिवृत्तिविकल्पात् ॥१२६
मालभारिणी परिहारविशुद्धिनामधेयं नृप चारित्रमवेहि तत्तृतीयम् ।
परिहारविशुद्धिरित्युदीर्णा सकलप्राणिवधात्परा निवृत्तिः ॥१२७ तपस्या कर रहा हूँ फिर भी मुझे कोई लब्धि-ऋद्धि नहीं हुई है' इस प्रकार जो प्रवचन-आगम को निन्दा नहीं करता है तथा जिसकी आत्मा संक्लेश से मुक्त है उस मुनि के कल्याण के लिये अदर्शन परीषह का विजय जाना जाता है ॥ १२४ ॥
हे राजन् ! जिनेन्द्र भगवान् ने जो सामायिक नाम का पहला चारित्र कहा है उसे दो प्रकार का जानो। एक तो नियत काल से सहित है और दूसरा अनियत काल से सहित है अर्थात् एक समय की अवधि लेकर स्वीकृत किया जाता है और दूसरा जीवन पर्यन्त के लिये ॥ १२५ ॥ छेदोपस्थापना नाम का जो दूसरा चारित्र है वह अनुपम सुख को देने वाला है, मुक्ति का सोपान स्वरूप है तथा पाप को जीतने वाले मुनियों का विजयी शस्त्र है। प्रत्याख्यान चारित्र में प्रमाद के कारण लगे हुए दोषों का सम्यक् शास्त्र के अनुसार दूर करना छेदोपस्थापना चारित्र है अथवा अहिंसा सत्य आदि के विकल्प से जो अनिवृत्ति है वह भी छेदोपस्थापना चारित्र कहा गया है । अथवा विकल्पात् विकल्प पूर्वक जो निवृत्ति पाप का त्याग होता है वह छेदोपस्थापना है। भावार्थ'छेदे सति उपस्थापना छेदोपस्थापना' अथवा 'छेदेन-विकल्पेन उपस्थापना छेदोपस्थापना' इस प्रकार छेदोपस्थापना शब्द की निरुक्ति दो प्रकार की है। प्रथम निरुक्ति में छेदोपस्थापना का अर्थ है कि गृहीत चारित्र में प्रमाद के कारण यदि कोई दोष लगता है तो उसे आगम में बताये हुए क्रम से दूर करना और दूसरी निरुक्ति में अर्थ है कि चारित्र को अहिंसा, सत्य, अचौर्य आदि के विकल्प पूर्वक धारण करना। सामायिक चारित्र में सामान्यरूप से समस्त सावद्य-पाप सहित कार्यों का त्याग किया जाता है और छेदोपस्थापना में हिंसा का त्याग किया, असत्य का त्याग किया, चौर्य का त्याग किया आदि विकल्प पूर्वक त्याग किया जाता है इसलिये छेदोपस्थापना में विकल्प से अनिवृत्ति रहती है अथवा 'या निवृत्तिर्विकल्पात्' इस पाठ में विकल्प पूर्वक जो हिंसादि पापों से निवृत्ति है वह छेदोपस्थापना है ॥ १२६ ॥ हे राजन् ! परिहारविशुद्धि नाम का
१. नियमेन म० । २. प्रत्याख्यान म० व । ३. प्रकथन म० ।