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________________ पञ्चदशः सर्गः वसन्ततिलकम् १९९ नानाविधास्त्र हतियन्त्रनिपोलनाद्यैर्व्याहन्यमानतनुरप्यरिभिः प्रसह्य । ध्यानात्परादचलितः सहते विमोहो मोक्षोद्यतो वधपरीषहमप्यसह्यम् ॥ ११५ शालिनी नानारोगैर्बाधितोऽपि प्रकामं स्वप्नेऽप्यन्यान्याचते नौषधादीन् । यः शान्तात्मा ध्याननिधू तमोहो याञ्चा तेन ज्ञायते निर्जितेति ॥ ११६ उपजाति महोपवासेन कृशीकृतोऽपि लाभादलाभं परमं तपो मे । भैक्ष्यस्य योगीत्यपि मन्यते यो जयत्यलाभं स विनीतचेताः ॥ ११७ वसन्ततिलकम् ग्रस्तश्चिरं युगपदुत्थितचित्र रोगैर्जल्लौषधादिविविधद्धयुतोऽप्युपेक्षाम् । का परां प्रकुरुते खलु निःस्पृहत्वाद्यः सर्वदा गदपरीषहजित्स योगी ॥ ११८ मस्तीक्ष्णवर्त्मतृणकण्टक शर्कराद्यैरादारिताङ्घ्रियुगलोऽपि हतप्रमादम् । चर्यादिषु प्रयतते विधिना क्रियासु तस्य प्रतीहि तृणतोदजयं मुनीशः १ ॥११९ क्रोधाग्नि को प्रदीप्त करने वाले निन्दनीय तथा सर्वथा असत्य आदि रूक्ष वचनों को सुनता हुआ भी जो बिना सुने के समान उसके विक्षेप से रहित मन से उत्कृष्ट क्षमा को धारण करता है उसी बुद्धि मुनि के आक्रोश परीषह का सहन करना जानना चाहिये ॥ ११४ ॥ नाना शस्त्रों के घात तथा यन्त्र निपीड़न आदि के द्वारा शत्रु जिसके शरीर का हठ पूर्वक व्याघात कर रहे हैं फिर भी जो उत्कृष्ट ध्यान से विचलित नहीं होता वही मोह रहित तथा मोक्ष के लिये उद्यत मुनि असहनीय वधपरीषह को भी सहन करता है ॥ ११५ ॥ शान्त चित्त तथा ध्यान के द्वारा मोह को नष्ट करने वाला जो मुनि नाना रोगों से पीडित होने हर भी स्वप्न में भी दूसरों से औषध आदि की याचना नहीं करता है उसने याचना परीषह को जीता है ऐसा जाना जाता है ।। ११६ ॥ महोपवास से दुर्बल होने पर भी जो योगी लाभ की अपेक्षा भिक्षा के अलाभ को 'यह मेरे लिये परम तप है' ऐसा मानता है वह विनीत हृदय अलाभ परीषह को जीतता है ॥ ११७ ॥ यद्यपि चिर काल से एक साथ उत्पन्न हुए नाना रोगों से ग्रस्त तथा जल्लोषध आदि अनेक ऋद्धियों से सहित है तो भी निःस्पृह होने से सदा शरीर में परम उपेक्षा करता है वह मुनि रोग परीषह को जीतने वाला कहा जाता है ॥ ११८ ॥ जिसके दोनों पैर यद्यपि कठोर मार्ग में बड़े हुए तृण कण्टक और कंकड़ आदि के द्वारा विदीर्ण हो गये हैं फिर भी जो चर्या आदि क्रियाओं में विधिपूर्वक प्रमाद हित प्रवृत्ति करता है उसी मुनीश्वर के तृण स्पर्श परीषह का जीतना होता है ऐसा जानो ॥ ११९ ॥ १. मुनीनामीट् मुनीट् तस्य ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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