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________________ १६६ वर्धमानचरितम् मानुष्यं खलु कर्मभूमिरुचितो देशः कुलं कल्यता दीर्घायुः स्वहिते रतिश्च कथको धर्मश्रुतिः स्वादरात् । सत्स्वेतेष्वतिदुर्लभैषु नितरां बोधिः परा दुर्लभा जीवस्येति विचिन्तयन्तु सुकृतो रत्नत्रयालङ्कताः ॥ १०१ प्रहर्षिणी सन्मार्गाच्यवनविशिष्ट निर्जरार्थं सोढव्याः सकलपरीषहाः मुनीशः । कृच्छ्रेषु श्रियमपुनर्भवामुपैतुं वाञ्छन्तः स्वहितरता न हि व्ययन्ते ॥ १०२ उपजातिः क्षुदनीयोदयबाधितोऽपि लाभादलाभं बहु मन्यमानः । न्यायेन योऽश्नाति हि पिण्डशुद्धिं प्रशस्यते क्षुद्विजयस्तदीयः ॥ १०३ पुष्पिताग्रा स्वहृदयकरकस्थितेन नित्यं विमलसमाधिजलेन यः पिपासाम् । प्रशमयति सुदुःसहां च साधुर्जयति स धीरमतिस्तृषोऽभितापम् ॥ १०४ वसन्ततिलकम् प्रायवायुहतिमप्यविचिन्त्य माघे यः केवलं प्रतिनिशं बहिरेव शेते । संज्ञानकम्बलबलेन निरस्तशीतः शीतं वशी विजयते स निसर्गधीरः ॥ १०५ कथा को कहने वाला तथा आदर से उसे सुनना इन समस्त दुर्लभ वस्तुओं के मिलने पर भी जीव को बोध की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है इस प्रकार रत्नत्रय से अलंकृत सत्पुरुष चिन्तवन करें ॥ १०१ ॥ समीचीन मार्ग से च्युत नहीं होने तथा विशिष्ट निर्जरा के लिये मुनिवरों को समस्त परीषह सहन करना चाहिये सो ठीक ही है क्योंकि मुक्ति रूपी लक्ष्मी की इच्छा करने वाले, आत्महित में लीन मनुष्य कष्टों में पीड़ित नहीं होते हैं ॥ १०२ ॥ क्षुधा वेदनीय के उदय से बाधित होने पर भी न्याय से शुद्ध भोजन को ग्रहण करता है १०३ ॥ जो साधु हृदय रूपी मिट्टी के घट में भारी तृषा को शान्त करता है वही धीर लाभ की अपेक्षा अलाभ को बहुत मानता हुआ उसका क्षुधापरिषह को जीतना प्रशंसनीय होता है स्थित निर्मल समाधिरूपी जल के द्वारा निरन्तर बहुत ॥ बुद्ध तृषा के 'संताप को जीतता है ॥ १०४ ॥ जो मुनि माघ के महीने में हिम मिश्रित वायु के कर प्रत्येकरात्रि में मात्र बाहर ही सोता है, सम्यग्ज्ञानरूपी कम्बल के वाला वही जितेन्द्रिय तथा स्वभाव से धीर साधु शीत परीषह को आघात का भी विचार न बल से शीत को नष्ट करने
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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