________________
पञ्चदशः सर्गः
पोतो वारिधिमध्यगः सति जलैश्छिद्रे प्रपूर्णो यथा
मज्जत्याशु तथास्त्रवे च पुरुषो जन्मन्यनन्तासुखे । तस्मादावरोधनं त्रिकरणैः श्रेयो यतः संवृतो
निर्वास्यत्यचिराय संवरमिति ध्यायन्तु सन्तः परम् ॥९७ यत्नेनापि विशोषणादुपचितो दोषो यथा जीर्यते
गाढं कर्म तथैव निर्जरयति व्यानद्धमप्याचितम् । धीरः ' कातरश्चरेण तपसा रत्नत्रयालङ्कृतो
नान्येनेति विदन्तु सन्ततमिमां भव्याः परां निर्जराम् ॥९८ लोकस्थाथ यथा जिनोदितमधस्तिर्यक्तथोर्ध्वं परं
बाहुल्यं वरसुप्रतिष्ठकनिभं संस्था च संचिन्तयेत् । सर्वत्रापि च तत्र जन्ममरणैर्भ्रान्ति चिरायात्मनः
सम्यक्त्वामृतमादरादपिबतः स्वप्नान्तरेऽपि क्वचित् ॥९९ स्वाख्यातो जगतां हिताय परमो धर्मो जिनैरञ्जसा तत्त्वज्ञानविलोचनैविरहितो हिंसादिदोषैरयं संसारार्णवमप्यपारमचिरादुल्लङ्घ्य वा गोष्पदं
ख्यातानन्तसुखास्पदं पदमितं तैरेव येऽस्मिन्नताः ॥ १००
१९५
विचार करें ।। ९६ ।। जिस प्रकार समुद्र के बीच चलने वाला जहाज, छिद्र होने पर जल से परिपूर्ण होता हुआ शीघ्र ही डूब जाता है उसी प्रकार आस्रव के रहते हुए यह जीव अनन्त दुःखों से युक्त संसार में डूब जाता है इसलिये मन वचन काय से आस्रव का रोकना कल्याणकारी है क्योंकि संबर से सहित जीव शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त होता है इस प्रकार सत्पुरुष संवर का अच्छी तरह ध्यान करें ।। ९७ ।। जिस प्रकार यत्न पूर्वक शोषण करने से संचित दोष भी जीर्ण हो जाता है उसी प्रकार गाढ रूप से बंधा हुआ संचित कर्म भी यत्न पूर्वक शोषण करने से निर्जीर्ण हो जाता है । रत्नत्रय से अलंकृत मनुष्य कातर जनों के लिये अशक्य तप से धीर कहलाता है अन्य कार्य से नहीं । इस प्रकार भव्य जीव इस उत्कृष्ट निर्जरा का सदा चिन्तन करें ||१८|| जिनेन्द्र भगवान् ने उत्तम प्रतिष्ठक - मोंदरा के समान नीचे, बीच में तथा ऊपर लोक की जैसी चोड़ाई तथा आकृति का वर्णन किया है उसका उसी प्रकार चिन्तवन करना चाहिये इसके सिवाय जिसने स्वप्न में भी कहीं आदर पूर्वक सम्यक्त्व रूपी अमृत का पान नहीं किया है। उसे समूचे लोक में जन्म मरण के द्वारा भ्रमण करना पड़ता है ऐसा भी विचार करे || ९९|| तत्त्वज्ञान रूपी नेत्रों से सहित जिनेन्द्र भगवान्
जगत् के जीवों के हित के लिये हिंसादि दोषों से रहित इस वास्तविक धर्म का कथन किया है । जो जीव इस धर्म में शरणापन्न हैं उन्होंने पार रहित होने पर भी समान उल्लङ्घन कर प्रसिद्ध अनन्त सुख के स्थानस्वरूप मुक्ति पद को मनुष्य पर्याय, कर्मभूमि, उचित देश, योग्य कुल, नीरोगता, दीर्घं आयु,
१. वीर : म० । २. जन्ममररणे भ्रान्ति म० । ३. परमितं म० ।
संसार सागर का गोष्पद के
प्राप्त किया है ॥ १०० ॥ आत्म हित में प्रीति, धर्म