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________________ वर्धमानचरितम् जन्मव्याधिजरावियोगमरणव्यावृत्तिदुःखोदधा वामज्जन्नहमेक एव नितरां सीदामि मे नापरे । विद्यन्ते सुहृदो न चापि रिपवो न ज्ञातयः केवलं धर्मो बन्धुरिहापरत्र च परामित्येकतां चिन्तयेत् ॥९३ अन्योऽहं नितरां शरीरत इतो बन्धं प्रति प्रायशः सत्यैक्येऽप्यथ लक्षणाहितभिदो भेदो ममास्त्यस्य च । आत्मा ज्ञानमयो विनाशरहितोऽप्यज्ञं वपुर्नश्वरं साक्षं वाहमनक्ष इत्यपघनात्संचिन्तयेदन्यताम् ॥९४ अत्यन्ताशुचि, योनिसंभवतया शश्वन्निसर्गाशुचि त्वङ मात्रावृतिपूतिगन्धिकुनवद्वारं कृमिव्याकुलम् । विण्मूत्रप्रसवं त्रिदोषसहितं नद्धं शिराजालकै र्बीभत्सं वपुरेतदित्यशुचितां मान्य. सतां मन्यताम् ॥९५ उक्तास्त्वानवहेतवः सह जिनैरक्षः कषायादयो दुःखाम्भोनिधिपातिनो हि विषयास्तेषामिहापुत्र च । . आत्मा तद्वशगश्चतुर्गतिगुहां मृत्यूरगाध्यासिता मध्यास्ते ध्रुवमास्रवस्य सुधियो ध्यायन्तु दोषानिति ॥९६ जो जन्मान्तर-अन्य पर्याय की प्राप्ति होती है निश्चय से वही संसार है । अधिक क्या कहा जावे ? जिस संसार में इस समय भी यह जीव अपने आपके द्वारा अपना पुत्र हो जाता है ऐसे उस संसार में खेद है कि सत्पुरुष कैसे प्रीति का अनुभव करें? ॥ ९२॥ जन्म, रोग, बुढ़ापा, वियोग, मरण तथा तिरस्कार जनित दुःखों के सागर में मैं अकेला ही डूबता हआ अत्यन्त दुखी हो रहा हूँ न अन्य मित्र मेरे साथ हैं न शत्रु साथ हैं और न कोई जाति के लोग साथ हैं, । एक धर्म ही इस लोक तथा परलोक में मेरा बन्धु है-सहायक है इस प्रकार उत्कृष्ट एकत्व भावना का चिन्तवन करना चाहिये ॥ ९३ ॥ बन्ध की अपेक्षा कथंचित् एकता होने पर भी मैं इस शरीर से अत्यन्त भिन्न हूँ । लक्षणों के द्वारा भेद को धारण करने वाले मुझ में तथा इस शरीर में भेद है । आत्मा, ज्ञानमय तथा विनाश से रहित है, जब कि शरीर अज्ञानमय तथा नश्वर है। अथवा शरीर इन्द्रियों से सहित है और मैं इन्द्रियों से रहित हूं इस प्रकार शरीर से अन्यत्व का चिन्तवन करना चाहिये ॥ ९४ ॥ यह शरीर योनि से उत्पन्न होने के कारण अत्यन्त अशुचि-अपवित्र है, निरन्तर स्वभाव से अशुचि है, चर्म मात्र से ढंका हुआ है, अपवित्र गन्ध से सहित है, अत्यन्त कुत्सित नौ द्वारों से युक्त है, कीडों के समूह से भरा हुआ है, मल मूत्र को उत्पन्न करने वाला है, वात पित्त कफ इन तीन दोषों से सहित है, नसों के जाल से बंधा हुआ है और घृणित है-ग्लानि का पात्र है इस प्रकार सत्पुरुषों के माननीय पुरुष को अशुचिभावना का विचार करना चाहिये ॥९५ ॥ जिनेन्द्र भगवान् ने इन्द्रियों के साथ कषाय आदि को आस्रव का हेतु कहा है। इन्द्रियों के विषय दुःख रूपी सागर में गिराने वाले हैं उनके वशीभूत हुआ जीव इस लोक तथा परलोक में मृत्यु रूपी सांपों से अधिष्ठित चतुर्गति रूप गुफा में निवास करता है इस प्रकार विद्वज्जन निरन्तर आस्रव के दोषों का
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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