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________________ पञ्चदशः सर्गः त्यागः सुशास्त्रादिकदानमिष्टं ममेदमित्याद्यभिसन्धिहानिः । अकिञ्चनत्वं गुरुमूलवासः स्यादब्रह्मचर्य सुविरागता च ॥८८ शादूलविक्रीडितम् प्राज्ञाः प्राहुरनित्यताप्यशरणं जन्मकता चान्यता कायस्याशचिता परा च विविधः कर्मास्रवः संवरः। सम्यनिर्जरणं जगच्च सुवचस्तत्त्वं च धर्मस्थिते बोधेर्दुलभता तथा द्विषडनुप्रेक्षा इमाः श्रेयसे ॥८९ रूपं यौवनमायुरक्षनिचयो भोगोपभोगौ वपु वीयं स्वेष्टसमागमो वसुरतिः सौभाग्यभाग्योदयः । नो नित्याः स्फुटमात्मनः समुदिता ज्ञानेक्षणाभ्यामृते शेषा इत्यनुचिन्तयन्तु सुधियः सर्वे सदानित्यताम् ॥९० व्याधिव्याधभयंकरे भववने मोहेद्धदावानले __हन्तुं मृत्युमृगारिणा सरभसं क्रोडीकृतंः रक्षितुम् । आत्मैणीपृथकं जिनेन्द्रवचनादस्मिन्परे नेशते "मित्राद्या इति भावयन्त्वशरणं भव्या भवोल्लविनः ॥९१ संसार : खलु कर्मकारणवशाज्जीवस्य जन्मान्तरा वाप्तिबन्धुविपर्ययैर्बहुविधैर्गत्यक्षयोन्यादिभिः । किं वा साम्प्रतमेव यत्र तनयोऽप्यात्मात्मना भाव्यते तस्मिन्नीशि कीदृशी बत विदां' कुर्वन्तु सन्तो रतिम् ॥९३ करने के लिये जो तपा जाता वह बारह प्रकार का तप है ।। ८७ ॥ समीचीन शास्त्र आदि का देना त्याग है। 'यह मेरा है' इस प्रकार के अभिप्राय का त्याग करना आकिञ्चन्य है और गुरुओं के समीप निवास करना तथा उत्तम वैराग्य रूप परिणति का होना ब्रह्मचर्य है ।। ८८ ॥ ज्ञानी जनों ने अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, शरीर की अत्यधिक अशुचिता, अनेक प्रकार का कर्मास्रव, संवर, सम्यङ् निर्जरा, लोक, धर्म स्थिति का स्वाख्यातत्व और बोधि की दुर्लभता इन बारह अनुप्रेक्षाओं का कल्याण के लिये निरूपण किया है ।। ८९ ॥ रूप यौवन आयु इन्द्रियों का समूह, भोगोपभोग, शरीर की सामर्थ्य, इष्ट समागम, धन की प्रीति, तथा सौभाग्य और भाग्य का उदय इस प्रकार ज्ञान रूपी नेत्र के सिवाय जो अन्य पदार्थ अपने पास एकत्रित हुए हैं वे स्पष्ट ही नित्य नहीं हैं, इस तरह समस्त विद्वज्जन सदा अनित्यता का चिन्तवन करें ॥९० ।। व्याधि रूपी शिकारियों से भयंकर, तथा मोह रूपी प्रचण्ड दावानल से सहित इस संसार रूपी वन में मृत्यु रूपी सिंह के द्वारा मारने के लिये वेग से चपेटे हए आत्मा रूपी मग के बच्चे की रक्षा करने के लिये जिनेन्द्र भगवान के वचनों के सिवाय मित्र आदि अन्य लोग समर्थ नहीं हैं इस प्रकार संसार का उल्लङघन करने वाले–मोक्षाभिलाषी जीव अशरण भावना का चिन्तवन करें ।। ९१ ॥ कर्म रूप कारणों के वश, गति, इन्द्रिय, योनि आदि नाना शत्रुओं के द्वारा जोव को १. विदा सन्तो रतिं कुर्वते म०
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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