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________________ १९२ वर्धमानचरितम् वसन्ततिलकम् गुप्त्यन्वितैः समितिधर्मनिरन्तरानुप्रेक्षा परीषहजयैः कथितश्चरित्रैः । व्यक्तं जिनैः स खलु संवर एष सारः स्यान्निर्जराथ तपसेति च विश्वविद्भिः ॥८२ शार्दूलविक्रीडितम् सम्यग्योगविनिग्रहो निगदितो गुप्तिस्त्रिधासौ बुधैः ग्गुिप्तिः खलु कायगुप्तिरनघा गुप्तिस्तथा चेतसः । ईर्यायाः समितिः परा च वचसोऽप्यादाननिक्षेपयोरुत्सर्गस्य च पञ्चमी च समितिः स्यादेषणाया विधिः ॥८३ शालिनी क्षान्तिः सत्योक्तिर्दिवं चार्जवं च श्रेयः शौचं संयमः सत्तपश्च । त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः प्रोक्तो विद्भिः स्याद्दशैतानि लोके ॥८४ उपजाति उशन्त्यकालुष्यमथो तितिक्षां सदाप्यमित्रादिषु बाधकेषु । सत्सु प्रशस्तेषु च साधुवाक्यं सत्यं यथाज्ञास्थितिसंयुतं वा ॥८५ वदन्ति जात्यादिमदाभिमानप्रहोणतां मार्दवमार्जवञ्च । अवक्रता कायवचोमनोभिः शौचं च लोभाद्विनिवृत्तिरेका ॥८६ प्राणीन्द्रियाणां परिहार एको यः संयमं तं निगदन्ति सन्तः । कर्मक्षयार्थं परितप्यते यत्तपश्च तद्वादशभेदभिन्नम् ॥८७ निवृत्ति होने को भावसंवर कहा है और भावसंवर के होने पर कर्म पुद्गलों के ग्रहण का छुट जाना द्रव्य संवर माना है ।। ८१ ॥ सर्वज्ञ जिनेन्द्र भगवान् ने स्पष्ट कहा है कि वह संवर, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषह जय और चारित्र के द्वारा होता है। यह संवर श्रेष्ठ तत्त्व है तप के द्वारा संवर और निर्जरा दोनों होते हैं ।। ८२ ॥ अच्छी तरह योगों का निग्रह करना गुप्ति कहा गया है । विद्वानों ने गुप्ति के तीन भेद कहे हैं-वचनगुप्ति, कायगुप्ति, और मनोगुप्ति । समिति के पांच भेद हैं-ईर्यासमिति, भाषा समिति, आदाननिक्षेपण समिति, उत्सर्ग समिति और पांचवीं एषणा समिति ॥ ८३ ॥ क्षमा, सत्यवचन, मार्दव, आर्जव,श्रेष्ठ शौच, संयम, सम्यक्तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य, ये दस लोक में विद्वानों के द्वारा धर्म कहे गये हैं ॥ ८४ ॥ बाधा पहुंचाने वाले शत्रु आदि में भी सदा कालुष्यभाव नहीं करने को क्षमा कहते हैं । साधु तथा प्रशस्त जनों के साथ आगम की आज्ञानुसार श्रेष्ठ वचन बोलना सत्य कहलाता है ॥ ८५ ॥ जाति आदि के मद से होने वाले अभिमान को छोड़ना मार्दव धर्म है । मन, वचन, काय की सरलता को आर्जव कहते हैं। लोभ से अद्वितीय विरक्ति होना शौच धर्म है ॥ ८६ ॥ प्राणि हिंसा तथा इन्द्रिय विषयों का जो असाधारण त्याग है उसे सत्पुरुष संयम कहते हैं । कर्मों का क्षय
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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