________________
१९७
पञ्चदशः सर्गः
शिखरिणी दवाग्निज्वालाभिर्जटिलितवने ग्रीष्मसमये
स्थितस्योग्रैर्भानोः शिखरिणि मयूखैरभिमुखम् । समुत्तप्ताङ्गस्य क्षणमिह धृतेरप्यचलतः
सहिष्णुत्वं तस्य प्रययति मुनेरुष्णसहनम् ॥१०६
वसन्ततिलकम् दष्टोऽपि दंशमशकादिगणेन बाढं मर्मप्रदेशमुपगम्य निरङ्कशेन । यो योगतो न चलति क्षणमप्युदारस्तस्येह दंशमशकादिजयोऽवसेयः ॥१०७
शार्दूलविक्रीडितम् याचाप्राणिवधादिदोषरहितं निःसङ्गतालक्षण
___ मप्राप्यामपरैः समुत्सुकयितुं निर्वाणलक्ष्मी क्षमम् । नाग्न्यं कातरदुर्धरं धृतवतोऽचेलव्रतं योगिनः पर्याप्ति समुपेति तद्धि विदुषां तत्त्वैषिणां मङ्गलम् ॥१०८
छन्दः (?) इन्द्रियेष्टविषयेषु निरुत्सुकमानसः पूर्वमुक्तसुखसंपदमप्यविचिन्तयन् ।
मस्तपश्चरति दुश्चरमेकविमुक्तधीर्मुक्तयेऽरतिपरीषहजित्स विदां वरः ॥१०९ जीतता है ॥ १०५ ।। जिसमें दावानल की ज्वालाओं से वन व्याप्त हो रहा है ऐसे ग्रीष्म समय में जो पर्वत पर स्थित है, संमुख पड़ने वाली सूर्य की भयंकर किरणों से जिसका शरीर संतप्त हो गया है तथा इस लोक में जो क्षणभर के लिये भी धैर्य से विचलित नहीं होता है, उष्ण परीषह का सहन करना उन्हीं मुनि की सहनशीलता को प्रसिद्ध करता है ॥ १०६ ।। डांस मच्छर आदि का समूह किसी रुकावट के बिना मर्मस्थान को प्राप्त होकर जिसे अत्यधिक मात्रा में यद्यपि काटता है तो भी जो क्षणभर के लिये भी ध्यान से विचलित नहीं होता है उसी मुनि के इस लोक में उत्कृष्ट दंश मशकादि परीषह का जीतना जानना चाहिये । १०७ ॥ जो याचना और प्राणिघात आदि दोषों से रहित है, निष्परिग्रहता का लक्षण है, अन्य मनुष्यों के द्वारा अप्राप्य मोक्ष लक्ष्मी को उत्कण्ठित करने के लिये जो समर्थ है तथा कायर मनुष्य जिसे धारण नहीं कर सकते ऐसे आचेलक्यव्रत को धारण करने वाले मुनि का नाग्न्य परीषह पूर्णता को प्राप्त होता है सो ठीक ही है क्योंकि तत्त्व के अभिलाषी ज्ञानी जनों के लिये वही मङ्गल स्वरूप है ॥ १०८॥ इन्द्रियों के इष्ट विषयों में जिसका मन निरुत्सुक है, जो पहले भोगी हुई सुख संपदा का विचार भी नहीं कर रहा है तथा वियुक्त बुद्धि निःस्पृह होता हुआ मात्र मुक्ति प्राप्ति के उद्देश्य से कठिन तप करता है वही उत्कृष्ट ज्ञानी मनुष्य अरति परिषह को जीतने वाला है ॥ १०९ ॥
१. विमुक्तिधी म०।