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________________ चतुर्दशः सर्गः रत्नानां वियति सुरेन्द्रचापलक्ष्मीमन्योन्यव्यतिकरितैगर्भस्तिजालैः । कुर्वाणां जनयति संपदा' समयां सामग्रीं सकलजनस्य सर्वरत्नः ॥३४ लोकानामिति स मनोरथानशेषान्भूपेन्द्रो निधिभिरपूरयन्निकामम् । प्रत्यग्रैर्नवजलमोचिभिः समन्ताज्जीमूतैरिव शिखिनां तपावसानः ॥३५ औद्धत्यं नवनिधिभिः प्रदीयमानैर्न द्रव्यैरपरिमितैः स संप्रपेदे । तोयौघैरिव जलधिर्नदोपनीतैर्धीराणां न हि विभवो विकारहेतुः ॥३६ अप्येवं समनुभवन्दशाङ्गभोगान्व्यान म्रैरमरनृपैः सदा परीतः । धर्मास्थ शिथिलयति स्म न स्वचित्तान्माद्यन्ते न हि विभवैर्महानुभावाः ॥३७ आश्लिष्टो धनमपि राजराजलक्ष्म्या राजेन्द्रः प्रशमति सुखाय मेने । सद्दृष्टे रधिगतभूरिसंपदोऽपि श्रेयोऽर्थान्नहि विजहाति निर्मला धीः ॥ ३८ पूर्वाणि त्रिभिरधिकान्यशीतिलक्षाण्यानन्दं सकलजनस्य चक्रनाथः । तन्वन्निति सनिनाय मग्नचित्तौ विस्तीर्णे विषयसुखामृताम्बुराशौ ॥३९ अन्येद्युः प्रविमलदर्पणे स्वबिम्बं संपश्यन्नृपतिः स्वकर्णमूले । संलग्नं विनिगदितुं जरां भवित्रों दूतं वा नवपलिताङ्कुरं निदध्यौ ॥४० १७३ करती है ॥ ३३ ॥ सर्वरत्ननिधि, समस्त मनुष्यों के लिये उस सामग्री को उत्पन्न करती है जो परस्पर मिली हुई रत्नों की किरणावली से आकाश में इन्द्रधनुष को लक्ष्मी को उत्पन्न करती है और संपत्ति के द्वारा परिपूर्ण है ॥ ३४ ॥ इस तरह जिस प्रकार वर्षाऋतु सब ओर नूतन जल को छोड़ने वाले नवीन मेघों से मयूरों के समस्त मनोरथों को पूर्ण करती है उसी प्रकार वह चक्रवर्ती निधियों के द्वारा मनुष्यों के समस्त मनोरथों को अतिशयरूप से पूर्णं करता था ।। ३५ ।। जिस प्रकार समुद्र नदियों द्वारा लाये हुए जल के समूह से गर्व को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार वह नौ निधियों के द्वारा दिये जाने वाले अपरिमित धन से गर्व को प्राप्त नहीं हुआ था सो ठीक ही है क्योंकि वैभव धीर मनुष्यों के विकार का कारण नहीं होता ॥ ३६ ॥ जो नम्रीभूत देव और राजाओं के द्वारा सदा घिरा रहता था ऐसे उस चक्रवर्ती ने इस तरह दशाङ्ग भोगों को भोगते हुए भी अपने मन से धर्म की श्रद्धा को शिथिल नहीं किया था सो ठीक ही है क्योंकि महानुभाव -- उत्तम मनुष्य वैभव के द्वारा गर्व को प्राप्त नहीं होते हैं ।। ३७ । वह चक्रवर्ती, कुबेर की लक्ष्मी से अत्यन्त आलिङ्गित होने पर भी प्रशम गुण की प्रीति को ही सुख के लिये मानता था सो ठीक ही है क्योंकि बहुत भारी संपत्ति को प्राप्त करने वाले भी सम्यग्दृष्टि जीव की निर्मल बुद्धि कल्याणकारी पदार्थों को नहीं छोड़ती है ।। ३८ ।। इस प्रकार जो विस्तृत विषय सुख रूपी अमृत के समुद्र में निमग्न चित्त था तथा जो समस्त मनुष्यों के आनन्द को विस्तृत करता रहता था ऐसे उस चक्रवर्ती ने तेरासी लाख पूर्वं व्यतीत कर दिये ।। ३९ । किसी अन्य दिन वह चक्रवर्ती अत्यन्त निर्मल दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देख रहा था, उसी समय उसने अपने कानों के समीप लगा हुआ एक सफ़ेद बाल देखा, वह बाल ऐसा जान पड़ता १. संपदं म० । २. समग्रां म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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