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________________ १७४ वर्धमानचरितम् तं दृष्ट्वा मणिमुकुरं विहाय सद्यो राजेन्द्रश्चिरमिति चिन्तयांबभूव । 'विश्वस्मिन्नहमिव कोऽपरः सचेताः संसारे विषयविषवंशीकृतात्मा ॥४१ भोगार्थः सुरनृपखेचरोपनीतैः साम्राज्ये न खलु ममापि जातुरम्यैः । संतृप्तिः प्रकृतिनरेषु कैव वार्ता दुःपूरो भवति तथापि लोभगतः ॥४२ आकृष्टो विषयसुखैबुंधोऽपि ननं संसारान्न परिबिभेति भरिदःखात । आत्मानं बत कुरुते दुराशयातं मोहान्धो ननु सकलोऽपि जीवलोकः ॥४३ ते धन्या जगति विदां त एव मुख्याः पर्याप्तं सुकृतफलं च भूरि तेषाम् । यैस्तृष्णाविषलतिका समूलतूलं प्रोन्मूल्य प्रतिदिशमुज्झिता सुदूरम् ॥४४ नो भार्या न च तनयो न बन्धुवर्गः संत्रातुं व्यसनमुखादलं हि कश्चित् । तेष्वास्थां शिथिलयितुं तथापि नेच्छेत् धिङ्मूढां प्रकृतिमिमां शरीरभाजाम् ॥४५ संतृप्तिन च विषयनिषेव्यमाणैरक्षाणां भवति पुनस्तृषैव घोरा।। तृप्णा” हितमहितं न वेत्ति किञ्चित्संसारो व्यसनमयो शनात्मनीनः ॥४६ जानाति स्वयमपि वोक्षते शृणोति प्रत्यक्षं जननजरामृतिस्वभावम् । संसारं कुशलविवजितं तथापि भ्रान्तात्मा प्रशमरतो न जातु जीवः ॥४७ था मानो आगे आने वाली वृद्धावस्था की सूचना देने के लिये आया हुआ उसका दूत ही हो ॥४०॥ उस बाल को देख कर तथा शीघ्र ही मणिमय दर्पण छोड़ कर चक्रवर्ती चिरकाल तक ऐसा बिचार करने लगा कि समस्त संसार में मेरे समान दूसरा कौन प्राणी है जिसकी आत्मा विषयरूपी विष के वशीभूत हो ॥ ४१ ॥ देव राजा तथा विद्याधरों के द्वारा लाये हुए मनोहर भोगोपभोग के पदार्थों से जब साम्राज्य में मुझे भी निश्चय से तृप्ति नहीं है तब प्रजा-जनों की तो बात ही क्या है ? फिर भी लोभरूपी गड्ढा दुःपुर है-कठिनाई से भरने के योग्य है ।। ४२ ।। विषय-सुख से आकृष्ट हआ विद्वान् भी सचमुच बहुत भारी दुःख से युक्त संसार से भयभीत नहीं होता है। खेद है कि वह दृष्ट तष्णा से अपने आपको दुःखो करता है सो ठीक ही है क्योंकि निश्चय से सभी संसार मोह से अन्धा हो रहा है ।। ४३ ॥ संसार में वे ही धन्य हैं, वे ही ज्ञानीजनों में मुख्य हैं, और उन्हों को पुण्य का बहुत भारी फल अच्छी तरह प्राप्त हुआ है जिन्होंने कि तृष्णा रूपी विषलता के समूलतूल उखाड़ कर प्रत्येक दिशा में बहुत दूर फेंक दी है ॥ ४४ ॥ यद्यपि मृत्यु के मुख से रक्षा करने के लिये न स्त्री समर्थ है, न पुत्र समर्थ है और न कोई बन्धु वर्ग हो समर्थ है तथापि यह प्राणी उनमें आदर बुद्धि को शिथिल करने की इच्छा नहीं करता सो ठोक ही है क्योंकि प्राणियों को इस मूढ़ बुद्धि को धिक्कार है ॥ ४५ ॥ अच्छी तरह सेवन किये हुए विषयों से इन्द्रियों की तृप्ति नहीं होती किन्तु भयंकर तृष्णा ही बढ़ती है। तृष्णा से पीड़ित जीव हित-अहित को कुछ भी नहीं जानता है। वास्तव में दुःखों से भरा हुआ यह संसार आत्मा के लिये हितकारी नहीं है ।। ४६ ।। भ्रम में पड़ा हुआ यह जीव यद्यपि जन्म, जरा और मृत्यु रूप स्वभाव से सहित तथा कुशल से रहित संसार को स्वयं जानता है, देखता है और प्रत्यक्ष सुनता भी है तो भी कभी प्रशम १. विश्वस्मादिह म० । २. रम्ये म० । ३. प्रकृत म । ४. भ्रान्त्यात्मा म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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