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________________ १७२ वर्धमानचरितम् शालीनां तिलयवमाषकोद्रवाणां व्रीहीणां वरचणकप्रियङ्गकाणाम् । सर्वेषां जनहृदयाभिवाञ्छितानां भेदानामतिधृति पाण्डुकः प्रदाता ॥२७ प्रत्युप्तप्रविपुलरत्नराजिरश्मिश्रेणीभिः शबलितसर्वदिङ्मुखानि । स्त्रीपुंसं प्रति सदशानि' भूषणानि श्रीमन्ति प्रतिदिशति पिङ्गलो जनेभ्यः ॥२८ सर्वर्तुप्रसवफलानि सर्वकालं चित्राणि मलतिकार्पोद्भवानि । निाजं वितरति वाञ्छितानि कालः किन्न स्यात्सुकृतफलेन पुण्यभाजाम् ॥२९ सौवर्ण सदनपरिच्छदं विचित्रं ताम्रीयं विविधमुपस्करं च लौहम् । लोकेभ्यः समभिमतं ददाति यत्नान्नीरन्ध्र निधिरचिराय भूरिकालः ॥३० वाद्यानां ततघनरन्ध्रनद्धभेदैभिन्नानां श्रुतिसुखदायिनादभाजाम् । संघातं सृजति समीप्सिताय शङ्खो दुःप्रापं न हि जगतां समग्रपुण्यैः ॥३१ चित्राणि क्षणरुचिशक्रचापकान्ति खस्थास्तुं निजमहसा विडम्बयन्ति । वासांसि स्वतिशयरत्नकम्बलादिप्रावारैः सह दिशतीप्सितानि पद्मः ॥३२ हेतीनां निवहमनेकभेदभिन्नं दिव्यानामनुगतलक्षणस्थितीनाम् । दुर्भेद्यं कवचशिरःसुवर्मजातं प्रख्यातं वितरति माणवो जनेभ्यः ॥३३ आसनों के समह, पलङ्ग और नाना प्रकार के पाटे प्रदान करती है ।। २६ ।। साठी चावल, तिल, जी, उड़द, कोदों, सामान्य धान, उत्कृष्ट चना तथा प्रियङ्ग, आदि जिन अनाज के भेदों की मनुष्य अपने हृदय में इच्छा करते हैं उन सबको संतोष कारक मात्रा में पाण्डुक निधि देती है ।। २७ ।। पिंगल निधि मनुष्यों के लिए जड़े हुए बड़े-बड़े रत्नसमूह की किरणावली से जिन्होंने समस्त दिशाओं के अग्रभाग को चित्रित कर दिया है, जो स्त्री-पुरुषों की योग्य अवस्थाओं से सहित हैं तथा जो श्रीशोभा से सम्पन्न हैं ऐसे आभूषण प्रदान करती है ।। २८ ॥ कालनिधि सदा निश्छलरूप से वृक्ष, लता और झाड़ियों से उत्पन्न होने वाले नाना प्रकार के सब ऋतुओं के फूल और फल इच्छानुसार प्रदान करती है सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यशाली जीवों के पुण्य-फल से क्या नहीं होता ? ॥ २९ ॥ महानिधि मनुष्यों के लिये उनकी इच्छानुसार सुवर्ण से बने हुए, महलों की सजावट के विविध सामान, तथा तामे और लोहे के बने हुए नाना प्रकार के बर्तन, यत्नपूर्वक निर्दोष रूप से शीघ्र हो प्रदान करती है ।। ३० ॥ शङ्खनिधि, इच्छुक मनुष्यों के लिये तत, घन, रन्ध्र और नद्ध के भेद से नानाभेद लिये सुखदायक शब्द से युक्त बाजों के समूह को रचती है सो ठीक ही है क्योंकि सम्पूर्ण पुण्य के द्वारा जीवों के लिये कोई वस्तु दुर्लभ नहीं है ॥ ३१ ॥ पद्मनिधि अपने तेज से आकाश में स्थित बिजली और इन्द्रधनुष की कान्ति को तिरस्कृत करने वाले नाना प्रकार के मनोवांछित वस्त्र, अत्यन्त श्रेष्ठ रत्नकम्बल आदि ओढ़ने के वस्त्रों के साथ प्रदान करती है ।। ३२॥ माणव निधि, मनुष्यों के लिये अपने-अपने लक्षणों की स्थिति से सहित दिव्य शस्त्रों के विविध समूह तथा कठिनाई से भेदने योग्य प्रसिद्ध कवच और शिर के टोप आदि प्रदान १. सदृशानि ब०।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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