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________________ चतुर्दशः सर्गः संजाता नवनिधयः कुबेरलक्ष्म्याः कुर्वाणाः निजविभवैः सदाभिभूतिम् । प्राग्जन्मप्रजनितभूरिपुण्यशक्तिः किं कासां न भवति संपदां सवित्री ॥२० तेनोक्तामिति नरलोकसारभूतां संभूतामपि स निशम्य चक्रभूतिम् । भूपेन्द्रो जन इव विस्मयं न भेजे प्राज्ञानां किमिह कुतूहलस्य हेतुः ॥२१ प्रत्यक्षं जिनपतिमभ्युपेत्य भक्त्या सानन्दं सह सकलेन राजकेन । संपूज्य प्रथममसौ यथोक्तमार्गमार्गज्ञस्त्वथ विततान चक्रपूजाम् ॥२२ षट्खण्डं' कतिपयवासरैरननैराकीर्ण नृपखचराधिपैश्च देवः । चक्रेण स्ववशमकारि तेन कृत्स्नं दुःसाध्यं न हि भुवि भूरिपुण्यभाजाम् ॥२३ द्वात्रिंशत्सकलन राधिराट्सहस्त्रैविख्यातैरपि विबुधाधिपैस्तदद्धैः । स्त्रीभिः षण्णवतिसहस्रसम्मिताभिः कान्ताभिः परिकरितो रराज सम्राट् ॥२४ नैसर्पः सममथ पाण्डुपिङ्गलाभ्यां कालेन स्थितिमकरोच्च भूरिकालः । शङ्खाख्यो निधिरपि पद्ममाणवाभ्यां कौबेर्यां दिशि नवमश्च सर्वरत्नः ॥२५ प्रासादान्मृदु शयनानि सोपधानान्यासन्दीप्रमुखवरासनप्रपञ्चान् । नैसर्पो वितरति सन्ततं जनेभ्यः पर्यङ्कान्बहुविधजातिपट्टकांश्च ॥२६ १७१ हुए सचिव, गृहपति, स्थपति, सेनापति, गजराज और अश्वरत्न, कन्या रत्न के साथ आपके कटाक्षपात की इच्छा कर रहे हैं ॥ १९ ॥ अपने वैभव से सदा कुबेर की लक्ष्मी का पराभव करनेवाली नौ निधियाँ भी उत्पन्न हुई हैं सो ठीक ही है क्योंकि पूर्वजन्म में संचित बहुत भारी पुण्य की शक्ति किन सम्पदाओं को उत्पन्न करने वाली नहीं होती ? || २० || इस प्रकार उस पुरुष के द्वारा कही हुई, मनुष्यलोक की सारभूत चक्ररत्न की संपदा को उत्पन्न हुई सुनकर भी राजा प्रियमित्र, साधारण मनुष्य के समान विस्मय को प्राप्त नहीं हुए सो ठीक ही है क्योंकि इस संसार में ऐसी -सी वस्तु है जो विद्वज्जनों के कुतूहल का कारण है ? अर्थात् कोई नहीं ॥ २१ ॥ विधि विधान के ज्ञाता राजाधिराज प्रियमित्र ने हर्ष सहित समस्त राजाओं के साथ साक्षात् तीर्थंकर के पास जाकर सबसे पहले भक्तिपूर्वक यथोक्त विधि से उनकी पूजा की पश्चात् चक्ररत्न की पूजा को विस्तृत किया ।। २२ ।। उसने समस्त भूमिगोचरी राजाओं, विद्याधर राजाओं और देवों से व्याप्त सम्पूर्ण छह खण्ड को चक्ररत्न के द्वारा कुछ ही दिनों में अपने वश कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि बहुत भारी पुण्य से युक्त मनुष्यों को पृथिवी में कठिन कुछ भी नहीं है || २३ || बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओं, सोलह हजार प्रसिद्ध देवों और छियानवे हजार सुन्दर स्त्रियों से सहित चक्रवर्ती प्रियमित्र सुशोभित होने लगा ॥ २४ ॥ तदनन्तर पाण्डु और पिङ्गल के साथ नैसर्प, काल के साथ महाकाल, पद्म और माणव के साथ शङ्खनिधि तथा नौवीं सर्वरत्न निधि ये नौ निधियाँ उत्तर दिशा में स्थित थीं || २५ || नैसर्प निधि, मनुष्यों के सदा भवन, गद्दा और तकियों से सहित बिस्तर आरामकुर्सी आदि उत्तमोत्तम १. षट्खण्डैः म० । २. पट्टिकांश्च म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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