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________________ त्रयोदशः सर्गः मालभारिणी इति तस्य मुदा नरेन्द्रलक्ष्मों दधतः श्रावकवृत्तिमप्यखण्डाम् । नरनाथपतेरनेकसंख्या ययुरब्दाः स्फटिकाश्मनिर्मलस्य ॥८१ मुनिपतिमवलोक्य सुप्रतिष्ठं प्रमदवने स्थितमन्यदा नरेन्द्रः । समजनि स तपोधनस्तपश्च प्रशमरत 'रिचरकालमाचचार ॥८२ उपजातिः स जीवितान्ते विधिवद्विधिज्ञः सल्लेखनामेकधिया विधाय । अलंचकार क्षितिमात्मकीर्त्या मूर्त्या महाशुक्रमपि प्रतीतः ॥८३ वसन्ततिलकम् दिव्याङ्गनाजनमनोहररूपसंपत् स प्रीतिवर्धनविमानमनूनमानम् । अध्यास्य षोडशपयोनिधिसम्मितायुः प्रीतिकरो रमत तत्र विचित्रसौख्यम् ॥८४ इत्यसगकृते श्रीवर्द्धमानचरिते हरिषेणमहाशुक्रगमनो नाम त्रयोदशः सर्गः ॥ १३ ॥ १. प्रशमरतिश्चिर- म० राजा काम-पाश के समान कण्ठ में अर्पित प्रिया के भुजयुगल को बड़ी कठिनाई से छुड़ाता हुआ शय्या से उठा ॥ ८० ॥ १६७ इस प्रकार जो हर्ष पूर्वक राज्यलक्ष्मी और अखण्ड - निरतिचार श्रावक को वृत्ति को भी धारण कर रहा था तथा जो स्फटिकमणि के समान निर्मल था ऐसे उस राजाधिराज हरिषेण के अनेक वर्ष व्यतीत हो गये ।। ८१ ।। किसी अन्य समय राजा प्रमदवन में स्थित सुप्रतिष्ठ मुनि को देखकर तपोधन हो गया और प्रशमगुण में रत होता हुआ तपश्चरण करने लगा || ८२ ॥ आयु अन्त में विधि के जाननेवाले उन प्रसिद्ध मुनि ने एकाग्र बुद्धि से विधिपूर्वक सल्लेखना कर अपनी कीर्ति से पृथिवी को और शरीर से महाशुक्र स्वर्ग को भी अलंकृत किया || ८३ || जिसकी रूप-संपदा देवाङ्गनाओं के मन को हरण करनेवाली थी तथा जिसकी आयु सोलह सागर प्रमाण थी ऐसा वह प्रीतिकर देव उस महाशुक्र स्वर्ग में बहुत बड़े प्रीतिवर्धन नामक विमान में रहकर प्रकार के सुखों का उपभोग करने लगा ।। ८४ ॥ इस प्रकार असग कवि कृत श्री वर्द्धमानचरित में हरिषेण के महाशुक्र स्वर्ग में जाने का वर्णन करनेवाला तेरहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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