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________________ १६८ वर्धमानचरितम् चतुर्दशः सर्गः प्रहर्षिणी द्वीपेsस्मिन्दधदपरेतरे विदेहे कच्छाख्यामथ विषयोऽस्ति नित्यरम्यः । सीतायाः सुरसरितस्तटीमुदीचीमुद्भास्य प्रकटमवस्थितः स्वकान्त्या ॥ १ उद्भिद्य क्षितितलमुत्थितोऽहिलोकः किं द्रष्टु ं भुवमुत नाकिनां निवासः । आयातः स्वयमपि यस्य भूरिशोभां पश्यन्तः क्षणममराश्च विस्मयन्ते ॥२ तत्रास्ति त्रिजगदिवैकतामुपेतं क्षेमादिद्युतिमभिधां पुरं दधानम् । 'सद्वृत्तप्रकृतियुतं विविक्तवर्णैराकीणं तिलकनिभं वसुन्धरायाः ॥३ तस्यासीदथ नृपतिः पुरस्य नाथो नीतिज्ञो विनतरिपुर्धनञ्जयाख्यः । श्रीरतिचपलाप्यकारि वश्या विद्यन्ते भुवि महतां न दुःकराणि ॥४ कल्याणी सकलकलासु दक्षबुद्धिः स्मेरास्या स्मरविजयैक वैजयन्ती । लज्जाया हृदिव बभूव तस्य राज्ञी विख्याता मनुजपतेः प्रभावतीति ॥५ सत्स्वप्नैर्निगदितचक्रवतिलक्ष्मीः प्राग्देवः सुरनिलयात्ततोऽवतीर्यं । पुत्रोऽभूद्भुवि स तयोर्यशो महीयो मूर्त वा प्रियपदपूर्वमित्रनामा ॥६ चौदहवाँ सर्ग . अथानन्तर इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में कच्छा नाम को धारण करने वाला एक नित्य रमणीय देश है जो अपनी कान्ति से सीता नदी के उत्तर तट को विभूषित कर प्रकट रूप से स्थित है ॥ १ ॥ जिसकी बहुत भारी शोभा को देखते हुए देव, क्षणभर के लिये ऐसा विस्मय करने लगते हैं कि क्या यह पृथिवीतल को भेदकर ऊपर उठा हुआ नागलोक - धरणेन्द्र का निवास है अथवा पृथिवी को देखने के लिये स्वयं आया हुआ स्वर्ग है ? ॥ २ ॥ उस कच्छा देश में हेमद्युति नाम को धारण करनेवाला एक नगर है जो ऐसा जान पड़ता है मानो एकरूपता को प्राप्त हुआ त्रिभुवन ही है, जो सदाचारी प्रजा से युक्त है, पवित्र आचरण करनेवाले वर्णों से व्याप्त है तथा पृथिवी के तिलक के समान है ॥ ३ ॥ तदनन्तर नीति का ज्ञाता और शत्रुओं को वश में करनेवाला धनञ्जय नाम का वह राजा उस नगर का स्वामी था जिसने अत्यन्त चञ्चल लक्ष्मी को भी वश कर लिया था सो ठीक ही है क्योंकि पृथिवी पर महापुरुषों के लिये दुष्कर कोई कार्य नहीं है ॥ ४ ॥ उस राजा की प्रभावती नाम की प्रसिद्ध रानी थी जो कल्याणकारिणी थी, समस्त कलाओं में कुशल बुद्धिवाली थी, हँसमुख थी, कामदेव की एक विजयपताका थी तथा मानो लज्जा का हृदय ही थी ॥ ५ ॥ समीचीन स्वप्नों के द्वारा जिसकी चक्रवर्ती की लक्ष्मी पहले से ही सूचित हो गयी थी ऐसा वह प्रीतिकर नाम का देव उस महाशुक्र स्वर्ग से अवतीर्ण होकर उन दोनों के प्रियमित्र नामका पुत्र हुआ ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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