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त्रयोदशः सर्गः
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रागिणः खलु न सिध्यति कार्य किञ्चिदप्यभिमतं पुरुषस्य । इत्यवेत्य तुहिनांशुरिवौ'ज्झद्रागमन्धतमसं विनिहन्तुम् ॥५९ श्वेतभानुरकृताशु विनाशं संहतस्य तमसोऽपि निकामम् । सान्द्रचन्दनसमद्युतिबिम्बः किं न साधयति मण्डलशुद्धः॥६० प्राप्य पादहतिमप्यखरांशो रागतः कुमुदिनी हसति स्म। सन्मुखस्य हि सुखाय न किंवा चेष्टितं प्रियतमस्य वधूनाम् ॥६१ ज्योत्स्नया सरसचन्दनपङ्कच्छायया जगदराजत पूर्णम् । कृत्स्नमक्षतजलस्थितिलक्षम्या वेलयेव चलदुग्धपयोधेः॥६२ शीतलैरपि करैस्तुहिनांशोनिर्ववौ कमलिनी न च कोकः । नास्ति वस्तु तदभीष्टवियोगे प्राणिनां भवति यत्प्रमदाय ॥६३ इन्दुरश्मिभिरगाधतयान्तद्धितोत्कलिकमम्बु पयोधेः।
क्षोभमुल्वणमनीयत दूरं मानिनीजनमनश्च निकामम् ॥६४ रूपी भील के द्वारा गृहीत देख कोप से पूरित बुद्धि होने के कारण ही मानो अत्यधिक लाल-लाल हो गया था ॥ ५८ ॥ 'रागी मनुष्य का कोई भी इष्ट कार्य सिद्ध नहीं होता है' यह जानकर हो मानो चन्द्रमा ने गाढ़ अन्धकार को नष्ट करने के लिये राग ( पक्ष में लालिमा ) को छोड़ दिया था। ५९ ॥ अन्धकार यद्यपि संचय को प्राप्त था तो भी गाढ़ चन्दन के समान कान्तिवाले बिम्ब से युक्त चन्द्रमा ने उसका शीघ्र नाश कर दिया था सो ठोक ही है क्योंकि शुद्ध मण्डलवाला कौन-सा कार्य सिद्ध नहीं करता है ? भावार्थ-मण्डल शब्द के दो अर्थ हैं । पहला घेरा और दूसरा देश । जिसका मण्डल-देश शुद्ध होता है-अपने अधीन होता है वह बड़े से बड़े संगठित शत्रु को नष्ट कर देता है इसी प्रकार जिसका मण्डल-घेरा शुद्ध है-देदीप्यमान है ऐसा चन्द्रबिम्ब आदि भी संचित अन्धकार के समूह को नष्ट कर देता है । ६० ॥ कुमुदिनी चन्द्रमा को पादहति-चरणों के आघात को ( पक्ष में किरणों के प्रहार को) प्राप्त करके भो राग वश हंसती रही सो ठोक ही है क्योंकि सन्मुख स्थित पति की कौन-सी चेष्टा स्त्रियों के सुख के लिये नहीं होतो? अर्थात् सभी चेष्टा सुख के लिये होती है । भावार्थ-यहाँ चन्द्रमा और कुमुदिनी में नायक-नायिका की कल्पना कर उक्त बात कही गई है अर्थात् जिस प्रकार संभोग के लिये सम्मख स्थित पति की प्रत्येक चेष्टा को स्त्रो प्रसन्नतापूर्वक सहन करती है उसी प्रकार कुमुदिनी ने भी सम्मुख स्थित-आकाश में सामने विद्यमान चन्द्रमा के पाद प्रहार-चरण-प्रहार ( किरण-प्रहार ) को भी सुख से सहन किया था ॥ ६१ ॥ सरस चन्दन-पङ्क-घिसे हुए ताजे चन्दन के समान कान्तिवाली चाँदनी से व्याप्त हुआ समस्त संसार इस प्रकार सुशोभित होने लगा मानो अखण्ड जल को स्थिति से सुशोभित चञ्चल क्षीरसमुद्र की बेला की तरह ही सुशोभित हो रहा हो ॥ ६२॥ चन्द्रमा की किरणें यद्यपि शातल थीं तो भी उनसे न कमलिनी सुख को प्राप्त हुई और न चकवा भी, सो ठोक ही है क्योंकि वह वस्तु नहीं है जो इष्ट वियोग में प्राणियों के सुख के लिए होती हो ।। ६३ ॥
चन्द्रमा की किरणों के द्वारा अगाधता-गहराई के कारण ( पक्ष में धैर्य के कारण )
१. रिवोऽज्झदाग-म०।।