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________________ १६४ वर्धमानचरितम् मित्रमेत्य सकलेन्दुमनङ्गोऽप्याशु लोकमखिलं च विजिग्ये । नूनमूनमपि वा जयलक्ष्मीरभ्युपैति समये सुसहायम् ॥६५ विक्षिपन्कुमुदकेसररेणून्सान्द्रचन्दनहिमोऽपि बभूव । दुःसहः प्रियविमुक्तवधूनां मन्मथानललवानिव वायुः ॥६६ दुरमप्यभिमतस्य निवासं खेदहीनमनयन्मदिराक्षीम् । मार्गदेशनविधावतिदक्षा चन्द्रिका प्रियसखीव मनोज्ञा ॥६७ यत्नतोऽपि रचितापि रमण्या मानसंपदचिराद्धृकुटी च । यूनि दृष्टिपथमीयुषि नम्र वाससा शिथिलतां सह भेजे ॥६८ काचिदाशु मदिरामदमोहच्छद्मना विहितदोषमपीष्टम् । वाच्यजितमियाय सखीषु प्रेम कस्य न करोति हि मायाम् ॥६९ वल्लभं समवलोक्य सदोषं कामिनी प्रकुपितापि पुरव। संभ्रमं न विजहावथ काचिद्योषितां खलु मनो हि निगूढम् ॥७० अन्यरक्तहृदयापि निकामं वारयोषिदनुरागयुतेव। कामुकस्य धनिनोऽजनि वश्या कस्य वस्तु न वशीकरणाय ॥७१ जिसके भीतर उत्कलिकाओं-तरङ्गों की ( पक्ष में उत्कण्ठाओं की ) वृद्धि हो रही थी ऐसा समुद्र का जल और मानवती स्त्री का मन बहुत दूर तक अत्यधिक क्षोभ को प्राप्त कराया गया था। भावार्थ-चन्द्रमा के उदय होने से समुद्र के जल में लहरें उठने लगों और रूसी हुई मानवती स्त्रियों का मन पति से मिलने के लिये उत्कण्ठित होने लगा॥ ६४ ॥ काम ने भी पूर्ण चन्द्रमा रूपी मित्र को प्राप्त कर समस्त संसार को जीत लिया सो ठीक ही है क्योंकि समय पर अच्छे सहायक को प्राप्त कर निर्बल मनुष्य भी निश्चय ही विजयलक्ष्मी को प्राप्त होता है ।। ६५ ॥ कुमुदों की केशर के कणों को बिखेरने वाला वायु यद्यपि सघन चन्दन के समान ठण्ढा था तो भी वह पतिरहित स्त्रियों के लिये ऐसा दुःसह हो रहा था जैसे मानों कामाग्नि के कणों को ही बिखेर रहा हो ॥ ६६ ॥ इष्ट पति का घर यद्यपि दूर था तो भी मार्ग के दिखाने में अत्यन्त चतुर मनोहर चाँदनी प्रिय सखी के समान मादक नेत्रोंवाली स्त्री को खेद के बिना वहाँ तक ले गयी थी॥ ६७ ॥ यत्नपूर्वक रची गई भी स्त्रो को मान-संपदा और भ्रकुटो नम्रीभूत युवा पति के दृष्टिगोचर होते ही वस्त्र के साथ शोघ्र ही शिथिलता को प्राप्त हो गई ।। ६८ ॥ कोई स्त्री सखियों के सामने मदिरा के मद से उत्पन्न मोह के छल से अपराधी पति के पास भी चुपचाप शीघ्र ही चली गयी थी सो ठीक हो है क्योंकि किसका प्रेम माया नहीं करता है ? अर्थात् सभी का करता है ।। ६९ ॥ कोई स्त्री यद्यपि पहले से कुपित थी तो भी उसने सापराध पति को देख कर संभ्रम को नहीं छोड़ा-उसका आदर-सत्कार करने में कमी नहीं को सो ठीक ही है क्योंकि स्त्रियों का मन निश्चय ही अत्यन्त गूढ़ होता है । ७० ।। कोई वेश्या यद्यपि अन्य पुरुष में अनुरक्त हृदय थी तो भी वह अनुराग से युक्त हुई के समान धनी कामी के वशीभूत हो गई थी सो ठीक ही है क्योंकि धन किसके वशीकरण के लिये नहीं है ? ॥७१ ॥
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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