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________________ १६२ वर्धमानचरितम् दूरतोऽन्धतमसं भवनेभ्यो रत्नदीपनिवहो नुदति स्म। भानुना निजकराङकुरदण्डः प्रेषितस्तम इव प्रणिहन्तुम् ॥५२ रक्तरागविवशीकृतचित्ताः सर्वतोऽपि कुलटा ययुराशु। यातुधान्य इव संमदतोऽभिप्रेतवासमनिरूपितरूपाः ॥५३ पाण्डुतामथ गतं मुखमैन्द्री लम्बमानतिमिरात्मकमूहे। दिग्बभारवनितेव विकान्ता निर्यदिन्दुकिरणाङ्करलेशैः ॥५४ उद्यतः शशभृतो मृदुपादानुद्वहन्नुदयभूभृदराजत् । उन्नतस्य विदधाति हि शोभा प्रश्रयः प्रविमले क्रियमाणः ॥५५ रश्मिजालमुदयान्तरितस्य प्राग्विधोस्तिमिरमाशु बिभेद । उद्यतः स्वसमये विजिगीषोरग्रगामिबलवत्प्रतिपक्षम् ॥५६ प्राक्कला हिमरुचेरुदया।विद्रुमद्युतिरुदंशु ततोऽर्द्धम् । उद्ययौ तदन बिम्बमशेषं कः क्रमादथ न याति हि वद्धिम ॥५७ अन्धकारशबरेण गृहीतां भामिनों समवलोक्य निजेष्टाम् । कोपपूरितधियेव नवोत्थो लोहितो हिमकरो भृशमासीत् ॥५८ प्रकार अन्धकार भी सबको एक बराबर कर देता है ।। ५१ ।। जो अन्धकार को नष्ट करने के लिए सूर्य के द्वारा भेजे हुए अपने किरण रूप अङ्कुरों के दण्ड के समान जान पड़ता था ऐसे रत्नमय दीपकों के समूह ने गाढ़ अन्धकार को भवनों से दूर हटा दिया था ।। ५२ ॥ जिनका चित्त प्रेमी के राग से विवश कर दिया गया था तथा अन्धकार के कारण जिनका रूप दिखाई नहीं देता था ऐसी राक्षसियों के समान कुलटा स्त्रियाँ सभी ओर हर्षपूर्वक शोघ्र ही अपने प्रेमी-जनों के घर जाने लगीं ॥ ५३॥ जिस प्रकार विधवा स्त्री बिखरे हुए काले-काले बालों से युक्त पाण्डु वर्ण मुख को धारण करती है उसी प्रकार पूर्व दिशा निकलते हुए चन्द्रमा को किरण रूपी अङ्करों के लेश से सफेदी को प्राप्त तथा लटकते हुए अन्धकार रूप केशों से युक्त मुख को धारण कर रही थी ऐसा मैं समझता हूँ ॥ ५४ ।। उदित होते हुए चन्द्रमा के कोमल पादों-किरणों ( पक्ष में चरणों ) को धारण करता हुआ उदयाचल अत्यधिक सुशोभित हो रहा था सो ठीक ही है क्योंकि अत्यन्त निर्मल पदार्थ के विषय में किया हुआ उत्कृष्ट मनुष्य का विनय शोभा को उत्पन्न करता ही है ॥५५॥ जिस प्रकार अपने सिद्धान्त के विषय में उद्यमशील मनुष्य अर्थात् अपने धर्म का पूर्णज्ञाता मनुष्य, विजयाभिलाषी मनुष्य के अग्रगामी सबल प्रतिपक्ष को शीघ्र ही खण्ड-खण्ड कर देता है उसी प्रकार उदयाचल से तिरोहित चन्द्रमा की किरणों के समूह ने अन्धकार को पहले ही शीघ्रता से खण्ड-खण्ड कर दिया था ॥ ५६ ॥ पहले मूंगा के समान लाल-लाल कान्तिवाली चन्द्रमा की एक कला उदयाचल से उदित हुई । उसके पश्चात् ऊपर की ओर किरणों को बिखेरने वाला अर्द्धबिम्ब उदित हुआ उसके पश्चात् पूर्ण चन्द्रबिम्ब उदित हुआ सो ठीक ही है क्योंकि क्रम से कौन मनुष्य वृद्धि को प्राप्त नहीं होता है ? ।। ५७ ॥ नवोदित चन्द्रमा अपनी प्रिय स्त्री रात्रि को अन्धकार
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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