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________________ त्रयोदशः सर्गः आव सपदि सान्द्रविनिद्रमल्लिका मुकुलशीतलगन्धः । अन्धयन्मधुकरैः सह मन्दं मानिनीरपि दिनात्ययवायुः ॥४७ संफलीवचनमाशु सरागं लीलया गमितमप्युपकर्णम् । चूतपल्लवमिवाननशोभां चित्रमातनुत मानवतीनाम् ॥४८ यत्तमोऽह्नि दिननाथभयेन क्ष्माभृतां पृथुगुहासु निलीनम् । तेन तद्विगमतो विजजृम्भे रन्ध्रमेत्य मलिनो हि बलीयान् ॥४९ अन्धकारपटलेन घनेन श्यामरोचिरभवज्जगदाप्तम् । सर्वतो विदलिताञ्जनभासा न श्रिये हि तमसा सह योगः ॥५० भास्वतामविषयो मलिनात्मा दुविभाव्यगतिरुज्झितसीमा । अन्धकारविभवोऽभृत वृत्ति दुर्जनस्य सुसमीकृतसर्वः ॥५१ १. विनिद्रो म० । २१ १६१ समान जान पड़ती थी ऐसी गायों के खुरों से उठो धूलि के द्वारा समस्त आकाश अवरुद्ध हो गया था ।। ४६ ।। अत्यधिक विकसित मालती के मुकुलों की शीतल गन्ध से युक्त, सन्ध्या काल का वायु, भ्रमरों के साथ मानवती स्त्रियों को भी अन्धा करता हुआ शीघ्र ही मन्द मन्द बहने लगा ॥ ४७ ॥ लोलापूर्वक कानों के समीप पहुँचाये हुए दूतियों के रागपूर्ण वचन, शीघ्र ही आम के पल्लव के समान मानवती स्त्रियों के मुख की शोभा को विस्तृत करने लगे ॥ भावार्थ - मानवती स्त्रियों को मनाने के लिये दूतियाँ उनके कानों के पास लग कर रागपूर्ण वचन कहने लगीं ॥ ४८ ॥ अन्धकार दिन में सूर्य के भय से पर्वतों की बड़ी-बड़ी गुफाओं में छिपा था वह अब सूर्य के अस्त होने से विस्तार को प्राप्त हो गया सो ठीक ही है क्योंकि मलिन मनुष्य छिद्र पाकर अतिशय बलवान् हो जाता है ॥ ४९ ॥ मर्दित अञ्जन के समान कान्तिवाले सघन अन्धकार के द्वारा सब ओर से व्याप्त हुआ यह संसार श्यामवर्ण हो गया सो ठीक ही है क्योंकि अन्धकार के साथ संयोग शोभा के लिये नहीं होता है ।। ५० ।। जो देदीप्यमान पदार्थों का विषय नहीं था अर्थात् उनके सामने स्थिर नहीं रह सकता था, जो मलिनात्मा - मलिन स्वरूप था, जिसकी गति दुर्विभाव्य थी - कठिनता से जानी जाती थी, जिसने सीमा को छोड़ दिया था तथा जिसने सबको एक समान कर दिया था ऐसा अन्धकार का वैभव दुर्जन की वृत्तिको धारण कर रहा था । भावार्थ - अन्धकार और दुर्जन की वृत्ति एक समान थी क्योंकि जिस प्रकार दुर्जन भास्वत् - तेजस्वी मनुष्यों के सामने नहीं आता उसी प्रकार अन्धकार भास्वत् - सूर्यादि देदीप्यमान पदार्थों के सामने नहीं आता, जिस प्रकार दुर्जन की आत्मा मलिन - पाप से कलुषित होती है उसी प्रकार अन्धकार की आत्मा भी मलिन - काली थी, जिस प्रकार दुर्जन की गतिविधि सरलता से नहीं जानी जाती उसी प्रकार अन्धकार की गति-विधि भी सरलता से नहीं जानी जाती, जिस प्रकार दुर्जन सीमा - मान-मर्यादा को छोड़ देता है उसी प्रकार अन्धकार भी सीमा - अवधि को छोड़ देता है और जिस प्रकार दुर्जन ऊँच-नीच का भेद समाप्त कर सबको एक बराबर कर देता है उसी
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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