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________________ वर्धमानचरितम् उज्झतः खलु परस्परमाति चक्रवाकमिथुनस्य दुरन्ताम् । द्रष्टुमक्षमधियेव नलिन्या पद्मचक्षुरधिकं निमिमीले ॥४१ 'प्रोज्झ्य दष्टबिसखण्डमशेषं क्रन्दता विपरिवृत्तमुखेन । चक्रवाकमिथुनेन नितान्तं मूर्च्छता विजघटे दिवसान्ते ॥४२ आबभौ नवजपारुणकान्तिः पाशिनः परिगता दिशि सन्ध्या। भास्करानुगतदीप्तिवधूनां पादयावकततेः पदवीव ।।४३ मीलितानि कमलान्यपहातुं नेषुरेव मधुपा मधुलोलाः । आपदा परिगतं सुकृतज्ञः स्वोपकारिणमपोज्झति को वा ॥४४ सन्ध्ययाप्यनुपतङ्गमगामि प्रोज्झ्य तत्क्षणमपूर्वदिगन्तम् । वल्लभं स्वमपहाय सुरक्ता सक्तिमेति न चिराय परस्मिन् ॥४५ गोखुरोत्थितरजोभिररोधि व्योम रासभतनूरुहधूम्रः। कोकदाहिमदनाग्निसमुद्यत्सान्द्रधूम्रपटलैरिव कृत्स्नम् ॥४६ मानो 'यह सूर्य प्रवास पर चला गया है' इसका संताप ही कर रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि मित्रसूर्य ( पक्ष में इष्ट जन ) का वियोग किसे नहीं संतप्त करता है ? ॥ ४० ॥ निश्चय से परस्पर एक दूसरे को छोड़ते हुए चक्रवाक युगल की बहुत भारी पीड़ा को देखने के लिये असमर्थ होकर ही मानो कमलिनी ने अपना कमल रूपी नेत्र अत्यधिक रूप से बन्द कर लिया था । भावार्थ-सूर्यास्त होने पर कमल बन्द हो जाते हैं यह नैसर्गिक वात है। इस नैसर्गिक बात का कवि ने उत्प्रेक्षालंकार से वर्णन करते हुए कहा है कि मानो कमलिनी परस्पर के वियोग से दुखी होने वाले चकवाचकवी की भारी पीड़ा को देखने के लिये असमर्थ थी इसीलिये उसने अपना कमल रूपी नेत्र बन्द कर लिया था ।। ४१ ।। जो मुख में दबाये हुए मृणाल के टुकड़े को सम्पूर्णरूप से छोड़ कर चिल्ला रहा था, जिसका मुख फिर गया था तथा जो अत्यधिक मूच्छित हो रहा था ऐसा चकवा-चकवियों का युगल दिवसान्तकाल में बिछुड़ गया था ॥ ४२ ॥ उस समय पश्चिम दिशा में व्याप्त, जासौन के फूल के समान लाल-लाल कान्ति वाली सन्ध्या ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो सूर्य के पीछे-पीछे चलने वाली दीप्ति रूपी स्त्रियों के पैरों के महावर को पदवी ही हो ॥ ४३ ॥ मधु के लोभी भ्रमरों ने निमीलित कमलों को छोड़ने की बिलकुल ही इच्छा नहीं की थी सो ठीक ही है क्योंकि आपत्ति में पड़े हुए अपने उपकारी को कौन कृतज्ञ छोड़ता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥ ४४ । पश्चिम दिशा के अन्त को तत्काल छोड़ कर सन्ध्या भी सूर्य के पोछे चली गई सो ठीक ही है क्योंकि सुरक्ताअत्यन्त लाल ( पक्ष में तीव्र अनुराग से सहित ) स्त्री अपने प्रिय पति को छोड़कर किसी अन्य पुरुष में चिरकाल तक सक्ति-लगन को प्राप्त नहीं होती है ।। ४५ ।। जो गधे के रोमों के समान मटमैले वर्ण की थो, तथा चकवा-चकवी को भस्म करने वालो कामाग्नि के उठते हुए सघन धूम्रपटल के १. संदष्ट बिसमुत्सृज्य चक्रद्वन्द्वन मूर्च्छता। परिवृत्तमुखाब्जेन तूर्णं विजघटे तदा ॥३॥ -जीवन्धरचम्पू लम्भ ६ २. कमलान्युपहातुं म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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