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________________ त्रयोदेशः सर्गः १५९ आत्मनो धनमिवोरु यियासुः क्वापि कश्चन पुनर्ग्रहणाय । स्वप्रियेषु निदधौ परितापं चक्रवाकमिथुनेषु विवस्वान् ॥३६ यान्तमस्तमपहाय दिनेशं दीप्तिभिः स्थितिरकारि गृहान्ते । जालमार्गपतिताभिरनाशं रत्नदीपमुपयातुमिवेद्धम् ॥३७ आनतो मुकुलिताग्रकरश्रीर्भानुमान्बहलरागमयात्मा। सादरं प्रिय इव श्लथमानो दृश्यते स्म रमणीभिरभीक्ष्णम् ॥३८ पूर्वभूतिरहितस्य कथं वा जायते जगति सम्मतिरस्मिन् । स्वं रविवपुरितीव विदित्वागोपयद्विवसुरस्तनगान्ते ॥३९ आशु संगतविहङ्गनिनादैः शाखिनः स्वयमिवानतशाखाः। प्रोषितोऽयमिन इत्यनुतेपुः कं न तापयति मित्रवियोगः ॥४० वारुणीरत-मदिरापान में तत्पर (पक्ष में पश्चिम दिशा में स्थित ) सूर्य को रोकता हुआ ही मानो उसके समीप नहीं गया था सो ठीक ही है क्योंकि पृथिवी पर कुमार्गगामी मित्र किसके रोकने योग्य नहीं है ? ॥ ३५ ॥ जिस प्रकार कहीं जाने को इच्छुक कोई मनुष्य फिर से वापिस लेने के लिये अपना श्रेष्ठ धन अपने प्रिय-जनों के पास रख जाता है उसी प्रकार अस्तोन्मुख सूर्य भी अपना संताप अपने प्रिय मित्र चकवा-चकवी के युगल में रख गया था। भावार्थ-सूर्यास्त होने पर चकवाचकवी परस्पर बिछुड़ जाने से संताप को प्राप्त हो गये ।। ३६ ।। अस्तोन्मुख सूर्य को छोड़कर झरोखे के मार्ग से भीतर पड़ती हुई किरणों ने घर के भीतर स्थिति की, उससे ऐसा जान पड़ता था मानो वे अविनाशी देदीप्यमान रत्नदीप को ही प्राप्त करना चाहती थीं। भावार्थ-जिस प्रकार कुलटा स्त्री विपत्तिग्रस्त पति को छोड़ कर अन्य पति के पास चली जाती है उसी प्रकार सूर्य की किरणें अस्तोन्मुख सूर्य को छोड़ कर रत्नमय दीपक को प्राप्त करने के लिये हो मानो झरोखों के मार्ग से घर के भीतर पहुँच गई थीं ॥ ३७ ।। जो पश्चिम दिशा की ओर ढला हुआ था ( पक्ष में चरणों में नमस्कार करने के लिये नम्रोभूत था ), जिसके आगे की किरणों की लक्ष्मी संकोचित हो गई थी ( पक्ष में जो हाथ जोड़ कर खड़ा हुआ था ) और जिसका शरीर अत्यधिक लाल हो रहा था ( पक्ष में जिसकी आत्मा तीव्र प्रेम से परिपूर्ण थी ) ऐसे सूर्य को स्त्रियों ने निरन्तर शिथिलमान पति के समान बड़े आदर से देखा था। भावार्थ-उस समय सूर्य उस पति के समान जान पड़ता था जो अपना मान छोड़ राग से विह्वल होता हुआ हाथ जोड़ कर तथा मस्तक झुकाकर अपनी प्रिया के सामने खड़ा हो ॥ ३८ ॥ पहले की सम्पत्ति से रहित मनुष्य का इस संसार में सम्मान कैसे हो सकता है ? यह विचार कर ही मानो विवसु-निर्धन ( पक्ष में किरण रहित ) सूर्य ने अपने शरीर को अस्ताचल के अन्त में छिपा रक्खा था। भावार्थ-जिसकी संपत्ति नष्ट हो जाती है ऐसा मनुष्य जिस प्रकार लज्जा के कारण अपने आपको छिपा कर रखता है उसी प्रकार किरण रहित सूर्य ने भी विचार किया कि जब तक मैं अपनी पूर्व विभूति को-पिछली संपत्ति को प्राप्त नहीं कर लेता तब तक जगत् में मेरी प्रतिष्ठा नहीं हो सकती-ऐसा विचार कर ही मानो वह अस्ताचल की ओट में छिप गया । यहाँ वसु शब्द किरण और धन इन दो अर्थों का वाचक है ॥ ३९ ॥ जिनकी शाखाएं स्वयं ही झुक गई थीं ऐसे वृक्ष, शीघ्र ही आकर बैठे हुए पक्षियों के शब्दों से ऐसे जान पड़ते थे
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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