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________________ १५८ वर्धमानचरितम् ऊढजानिरपि मन्मथवश्यो नो बभूव नयमार्गनदीष्णः । यस्य रज्यति मनो न कलत्रे सत्यपि स्मरमये स हि धीरः ॥२८ स त्रिकालमभिपूज्य जिनेन्द्रं गन्धमाल्यबलिधूपवितानैः । भक्तिशुद्धहृदयेन ववन्दे तत्फलं हि गृहवासरतानाम् ॥२९ आबभौ नभसि लग्नपताका चारुवर्णसुधयानुविलिप्ता । तेन कारितजिनालयपङ्क्तिः पुण्यसम्पदिव तस्य समूर्तिः ॥ ३० सन्नियम्य घनमात्मगुणौधैवद्विषोऽपि नयवित्सह मित्रः । राज्यमित्यमकरोच्चिरकालं सर्वदा प्रशमभूषितचेताः ॥३१ एकदा शमितभूतलतापं तत्प्रतापमभिवीक्ष्य सुतीक्ष्णम् । लज्जयेव निजदुर्णयवृत्तेः' संजहार रविरातपलक्ष्मीम् ॥ ३२ तप्तमेव हि मया जगदेतद्रश्मिभिस्ततदवानलकल्पैः । कष्टमित्यनुशयादिव भास्वांस्तत्क्षणं भृशमधोवदनोऽभूत् ॥ ३३ मण्डलं दिनकरस्य दिनान्ते कुङ्कुमद्युति निकाममराजत् । संहृतात्मक र संहति नीताम्भोजिनो हृदयरागमयं वा ॥३४ वारुणीरतमुदीक्ष्य पतङ्गं वारयन्निव तदा दिवसोऽपि । तत्समीपमगमन्न निवार्यं कस्य वोत्पथमनो भुवि मित्रम् ॥ ३५ नीतिमार्ग में निपुण रहने वाला हरिषेण, विवाहित होने पर भी काम के वशीभूत नहीं हुआ था सो ठीक ही हैं क्योंकि कामाकुलित स्त्री के रहने पर भी जिसका मन राग नहीं करता है वही धीर कहलाता है || २८ ॥ वह तीनों काल चन्दन, माला, नैवेद्य तथा धूप आदि के समूह से जिनेन्द्र भगवान् की पूजा कर भक्ति से शुद्ध हृदय के द्वारा उनकी वन्दना करता था सो ठीक ही है क्योंकि गृहवास में लोन मनुष्यों का यही फल है ।। २९ ।। जिस पर लगी पताकाएँ आकाश में फहराती रहती थीं तथा जो सुन्दर वर्णं वाले चूना के द्वारा बार-बार पोती जाती थीं ऐसी उसके द्वारा निर्मापित जिनमन्दिरों की पङ्क्ति उसकी मूर्तिधारिणी पुण्य सम्पत्ति के समान सुशोभित होती थी ॥ ३० ॥ इस प्रकार जिसका चित्त सदा शान्ति से विभूषित रहता था ऐसा नीतिज्ञ हरिषेण, अपने गुणों के समूह से शत्रुओं को अच्छी तरह वश कर मित्रों के साथ चिरकाल तक राज्य करता रहा ।। ३१ ।। एक समय पृथिवीतल के संताप को शान्त करने वाले उसके बहुत भारी प्रताप को देख कर सूर्य ने अपनी अनीति पूर्ण वृत्ति की लज्जा से ही मानो आतप की शोभा को संकोचित कर लिया ॥ ३२ ॥ बड़े कष्ट की बात है कि मैंने अब तक विस्तृत दावानल के समान किरणों के द्वारा इस जगत् को संतप्त ही किया है इस पश्चात्ताप के कारण हो मानो सूर्य उस समय अत्यन्त अधोमुख हो गया था ।। ३३ ।। दिनान्त काल में केशर के समान कान्ति को धारण करने वाला सूर्य का बिम्ब ऐसा अत्यधिक सुशोभित हो रहा था मानो वह संकोचित अपनी किरणों के समूह के द्वारा लाये हुए कमलिनी के हृदय सम्बन्धी राग से ही तन्मय हो रहा तो ॥ ३४ ॥ उस समय दिन भी, १. वृत्तैः ब० । २. चोत्पथमतो म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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