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________________ त्रयोदशः सर्गः १५५ आहतोऽपि मुहुरग्रकरागै!पयाति पुरतः प्रमदानाम् । यत्र च प्रियतमो विहितागाः श्वाससौरभवशश्च षडज्रिः ॥१० सम्पदं धनपतेरपदानां' हेपयन्ति धनिनो भुवि यस्याम् । अथिभिः स्वयमुपेत्य समन्ताद्गृह्यमाणवररत्नसमूहैः ॥११ बालचन्दनलतेव भुजङ्गैर्वेष्टितापि नितरां रमणीया। या सदा विबुधवृन्दसमेता राजते सुरपुरीव पुरश्रीः ॥१२ वज्रभूषितकरो भुवि राजा वज्रहेतिरिव यः पुरमिद्धाम् । वज्रसारतनुरध्यवसत्तां वज्रसेन इति विश्रुतनामा ॥१३ वक्षसि श्रियमुदीक्ष्य निषण्णामानने च सततं श्रुतदेवीम् । यस्थ कुन्दविशदा कुपितेव दिग्गता न निरवर्तत कीतिः ॥१४ दूरतो विनमिताखिलशत्रु स्वप्रतापविसरं विनिनिन्द । यः कदाचिदपि युद्धमपश्यन्युद्धदौ«दवशीकृतचेताः ॥१५ उसको आतप ( घाम ) की शोभा अत्यन्त विरल हो गई हो ॥९॥ जहाँ अपराध करने वाला प्रियपति और श्वास की सुगन्ध के वश हुआ भौंरा हाथ के अग्रभाग से बार-बार ताडित होने पर भी स्त्रियों के आगे से दूर नहीं हटता है ॥ १० ॥ जिस नगरी में पृथिवी पर धनिक लोग, याचकों के द्वारा स्वयं आकर चारों ओर से ग्रहण किये जाने वाले रत्नों के समूह से कुबेर की दान रहित सम्पदा को लज्जित करते रहते हैं। भावार्थ-वहाँ के धनिकों की सम्पदाएं याचकों को बिना मांगे प्राप्त हो जाती हैं जब कि कुबेर की सम्पदा मांगने पर भी प्राप्त नहीं होती इसलिए याचकों के द्वारा स्वयं ग्रहण किये जाने वाले रत्नों के द्वारा वहाँ के धनिक लोग मानो कुबेर की सम्पत्ति को लज्जित ही करते रहते हैं ॥ ११॥ जिस प्रकार चन्दन को छोटो लता भुजङ्गों-सों से वेष्टित होने पर भी अधिक रमणीय होती है उसी प्रकार वह नगरी भो भुजङ्गों-कामी-जनों से वेष्टित होने पर भी अधिक रमणीय थी। नगरों की लक्ष्मी स्वरूप जो उज्जयिनी विबुध वृन्द समेताविद्वानों के समूह से ( पक्ष में देवों के समूह से ) सहित होने के कारण स्वर्गपुरी के समान सदा सुशोभित होती है ।॥ १२ ॥ जिसका हाथ वज्र-हीरा से भूषित था, जो पृथिवी पर वज्रहेति-वज्रायुध-इन्द्र के समान था, जिसका शरीर वज्र के समान सुदृढ़ था तथा 'वज्रसेन' इस प्रकार जिसका नाम प्रसिद्ध था ऐसा राजा उस देदीप्यमान नगरी में निवास करता था ॥ १३ ॥ वक्षःस्थल पर निरन्तर बैठी हुई लक्ष्मी और मुख में सदा विद्यमान रहने वाली सरस्वती को देखकर जिसकी कुन्द के समान उज्ज्वल कीर्ति कुपित होकर ही मानो दिशाओं में चली गई थी और ऐसी चली गई थी कि आज तक लौटकर नहीं आई ॥ १४ ॥ जिसका चित्त युद्ध की अभिलाषा के वशीभूत था पर जिसे कभी भी युद्ध देखने का अवसर नहीं मिला, ऐसा वह राजा दूर से ही समस्त शत्रुओं को नम्रीभूत करने वाले अपने प्रताप के समूह की निन्दा करता रहता था। भावार्थ-उसके प्रताप के कारण शत्रु १. अपगतं दानं यस्यास्तां दानरहितामिति यावत ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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