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________________ १५६ वर्धमानचरितम् तस्य निर्मलकरस्य सुशीला नाम नाम महिषी कमनीया । भूपतेरभवदव्यतिरिक्ता कौमुदीव कुमुदाकरबन्धोः ॥१६ तौ विरेजतुरनन्यसमानौ दम्पती भुवि परस्परमाप्य । सर्व लोक नयनोत्सव हेतू कान्तियौवनगुणाविव मूतौ ॥१७ स्वर्गसौख्यमनुभूय स देवः श्रीमतोरथ तयोस्तनयोऽभूत् । आख्यया भुवि सतां हरिषेणो धीरधीरधिपतिः सुमनोज्ञः ॥१८ यं कलाधरमिवाभिनवोत्थं संस्पृशन्नरपतिः सह देव्या । वीक्ष्य सम्मदमियाय निकामं प्रीतये भुवि न कस्य सुपुत्रः ॥१९ लोकजीवनकरस्थितियुक्तं भूरिसारगुणवारिधिमेकम् । यं समीयुरवनीश्वर विद्याः सिन्धवः स्वयमनिन्दितसत्त्वम् ॥२० र से ही वशीभूत हो जाते थे इसलिये युद्ध की इच्छा रखने पर भी उसे युद्ध का अवसर नहीं मिलता था ।। १५ ।। जिस प्रकार निर्मल कर - उज्ज्वल किरणों वाले कुमुदाकरबन्धु चन्द्रमा की चांदनी होती है तथा वह उससे अपृथक् रहती है उसी प्रकार निर्मलकर- निर्दोष हाथ अथवा निर्दोष टेक्स से युक्त उस राजा वज्रसेन के स्पष्ट ही सुशीला नाम की सुन्दर रानी थी ॥ १६ ॥ जो किसी अन्य के समान नहीं थे तथा समस्त मनुष्यों के नेत्रों के हर्ष के कारण थे ऐसे वे दोनों दम्पती परस्पर एक दूसरे को प्राप्त कर इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानो मूर्तिधारी कान्ति और यौवन नामक गुण ही हों ॥ १७ ॥ स्वर्ग अथानन्तर राजा कनकध्वज का जीव 'देवानन्द' नामको धारण करने वाला वह देव, सुख का उपभोग कर उन दोनों दम्पतियों के पृथिवी पर हरिषेण नाम से प्रसिद्ध, सज्जनों का शिरोमणि, गम्भीर बुद्धि वाला अत्यन्त सुन्दर पुत्र हुआ ॥ १८ ॥ नूतन उदित चन्द्रमा के समान जिस पुत्र को देखकर तथा रानी के साथ जिसका स्पर्श करता हुआ राजा, अत्यन्त आनन्द को प्राप्त हुआ था सो ठोक ही है क्योंकि पृथिवी पर सुपुत्र किसकी प्रीति के लिये नहीं होता है ? अर्थात् सभी की प्रीति के लिये होता है ।। १९ ।। जो लोक जीवन को करने वाली स्थिति से युक्त था, जो 'बहुत भारी श्रेष्ठ गुणों का अद्वितीय सागर था, तथा प्रशंसनीय ऐसे उस पुत्र को राजविद्या रूपी नदियाँ स्वयं ही प्राप्त हुई थीं । समान था क्योंकि जिस प्रकार समुद्र लोगों के जीवन की रक्षा करने वाली मर्यादा से सहित होता है उसी प्रकार वह पुत्र भी लोगों के जीवन की रक्षा करने वाली मान-मर्यादाओं से सहित था, जिस प्रकार समुद्र वारि-जल को धारण करता है उसी प्रकार वह पुत्र भी बहुत भारी गुण रूपी जल को धारण करता था, जिस प्रकार समुद्र एक-अद्वितीय होता है उसी प्रकार वह पुत्र भी एक अद्वितीय अथवा मुख्य था और जिस प्रकार समुद्र अनिन्दितसत्त्व - उत्तम जन्तुओं से सहित होता है उसी प्रकार वह पुत्र भो अनिन्दित सत्त्व - प्रशंसनीय पराक्रम से सहित था इस प्रकार समुद्र की उपमा धारण करने वाले उस पुत्र के समीप राजविद्या रूपी नदियाँ स्वयं ही आ पहुँची थीं ॥ २० ॥ सत्त्व- पराक्रम से सहित था भावार्थ - वह पुत्र समुद्र के
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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