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________________ १५४ वर्धमानचरितम् भूरिसारधनधान्यविहीनो नास्ति कश्चिदपि यत्र मनुष्यः । द्रव्यमप्यनुपभुक्तमुपेत्य स्वेच्छया प्रणयिभिर्न निकामम् ॥३ चारुताविरहिता न पुरन्ध्रिश्वारुतापि सुभगत्वविहीना। यत्र नास्ति सुभगत्वमशीलं शीलमप्यविदितं न धरित्र्याम् ॥४ निर्जला न सरिदस्ति जलं च स्वादुहीनमहिमं न च यत्र । पतितोयमुदितैः पथिकानामस्तुतं न खलु तच्च समूहैः ॥५ पुष्पकान्तिरहितोऽस्ति न वृक्षः पुष्पमप्यतुलसौरभहीनम् । यत्र सौरभमपि भ्रमरालोरक्षम वशयितुं न नितान्तम् ॥६ अस्ति तत्र सकलोज्ज्वलवर्णा श्रीयुताकृतिरिवोज्जयिनीति । विश्रुता भुवि पुरी निजकान्त्या निजितान्यपुरविभ्रमसंपत् ॥७ या सुधाधवलितैर्वरसौधैरास्थितोज्ज्वलविभूषणरामैः। भाति मेघपदवी धवलाभ्रः शारदैरिव चिता सतडित्कैः ॥८ हेमशालखचितामलरत्नज्योतिषामिव जितः पटलेन । यत्र च प्रविरलातपलक्ष्मीलक्ष्यते ध्वजपटैः स्थगितोऽर्कः ॥९ पाक की कान्ति से रहित हो और ऐसो पाक सम्पत्ति भी नहीं थी जो तुच्छ हो क्योंकि ये सभी वस्तुएँ सदा अत्यन्त सुन्दर रहती थीं ॥ २॥ जहाँ ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं था जो बहुत भारी श्रेष्ठ धन-धान्य से रहित हो तथा ऐसा द्रव्य भी नहीं था जो प्रेमी-जनों के द्वारा इच्छानुसार प्राप्त कर अच्छी तरह भोगा न जाता हो ॥ ३ ॥ जहाँ ऐसी स्त्री नहीं थी जो सुन्दरता से रहित हो, ऐसी सुन्दरता भी नहीं थी जो सौभाग्य से रहित हो, ऐसा सौभाग्य भी नहीं था जो शील से रहित हो और ऐसा शील भी नहीं था जो पृथिवी पर प्रसिद्ध न हो ॥ ४ ॥ जहाँ ऐसी नदी नहीं थी जो जल रहित हो, और ऐसा जल भी नहीं था जो स्वाद रहित महिमा वाला हो तथा जल पीकर प्रसन्न हुए पथिकों के समूह जिसकी प्रशंसा न करते हों ॥ ५ ॥ जहाँ ऐसा वृक्ष नहीं था जो फूलों की कान्ति से रहित हो, ऐसा फूल नहीं था जो अनुपम सुगन्ध से रहित हो, और ऐसी सुगन्ध भी नहीं थी जो भ्रमरावली को अत्यधिक वश करने में समर्थ न हो ॥ ६॥ उस अवन्ती देश में उज्जयिनी नाम की नगरी थी। वह नगरी समस्त उज्ज्वल वर्णों से सहित थी, ऐसी जान पड़ती थी मानो शरीरधारिणी लक्ष्मी ही हो, पृथिवी में प्रसिद्ध थी तथा अपनी कान्ति से अन्य नगरों को शोभारूप सम्पत्ति को जीतने वाली थी॥ ७ ॥ चूना से सफेद तथा भीतर स्थित उज्ज्वल आभूषणों वाली स्त्रियों से युक्त उत्कृष्ट भवनों से जो ऐसी सुशोभित होती है जैसी बिजली से सहित शरद ऋतु के सफेद मेघों से व्याप्त मेघसरणि ( आकाश ) सुशोभित होती है ।। ८ । जहाँ ध्वजाओं के वस्त्रों से आच्छादित सूर्य ऐसा जान पड़ता है मानो सुवर्णमय प्राकार में संलग्न निर्मल मणियों की किरणों के समूह ने उसे जीत लिया हो और इसीलिए १. चिताश तडित्कः (?) म० । २. चितः म ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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