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त्रयोदशः सर्गः
१५३ वसन्ततिलकम् इत्थं धुरं विधुरवजितचित्तवृत्या धृत्वा चिरं शमवतां निजजीवितान्ते। सल्लेखनां विधिवदेत्य मृतोऽथ भूत्या कापिष्ठमाप्य स शुभे शुशुभे विमाने ॥७०
मन्दाक्रान्ता देवानन्दं निजतनुरुचां संपदा साधु तन्वन्
देवानन्दं दधदनुपमं नाम चान्वर्थमित्थम् । चक्रे रागं नयनसुभगस्तत्र दिव्याङ्गनानां
चक्रेऽरागं जिनमपि हृदि द्वादशाब्धिप्रमायुः ॥७१ इत्यसगकृते वर्द्धमानचरिते कनकध्वजकापिष्ठगमनो नाम
द्वादशः सर्गः।
त्रयोदशः सर्गः
स्वागता
श्रीमतामथ सतामधिवासो भारतेऽत्र विततोऽस्ति जनान्तः। नाकलोक इव मानवपुण्यैर्गां गतः स्वयमवन्त्यभिधानः ॥१ यत्र साररहिता न धरित्री पाककान्तिरहितं न च सस्यम्।
पाकसम्पदपि नास्ति पुलाका सर्वकालरमणीयविशेषात् ॥२ __इस प्रकार पापरहित मनोवृत्ति से चिरकाल तक मुनियों का भार धारण कर-मुनिव्रत का पालन कर वे अपनी आयु के अन्त में विधिपूर्वक सल्लेखना को प्राप्त हुए और मर कर कापिष्ठ स्वर्ग के शुभ विमान में विभूति से सुशोभित होने लगे ॥ ७० ॥ इस प्रकार अपने शरीर की कान्ति रूपी संपदा के द्वारा जो देवों के आनन्द को अच्छी तरह विस्तृत कर रहा था, जो 'देवानंद' इस सार्थक नाम को धारण करता था, तथा बारह सागर प्रमाण जिसको आयु थी ऐसा वह नयन सुभग-नेत्रों को प्रिय लगने वाला देव, वहाँ देवाङ्गनाओं के हृदय में राग उत्पन्न करता था और अपने हृदय में वीतराग जिनेन्द्र को धारण करता था ॥ ७१ ॥ इस प्रकार असगकविकृत वर्द्धमानचरित में कनकध्वज के कापिष्ठ स्वर्ग में
जाने का वर्णन करने वाला बारहवाँ सर्ग समाप्त हुआ।
तेरहवाँ सर्गः अथानन्तर इस भरत क्षेत्र में प्रशस्त श्रीमानों का निवासस्थल एक अवन्ती नाम का बहुत बड़ा देश है जो ऐसा जान पड़ता है मानो मनुष्यों के पुण्य से पृथिवी पर आया हुआ स्वर्ग ही हो ॥१॥ जिस देश में ऐसी पृथिवी नहीं थी जो सार रहित हो, ऐसा धान्य नहीं था जो
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