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वर्धमानचरितम्
ग्रीष्मे महो माकुल सर्वसत्त्वे शृङ्गे नगस्याभिमुखं खरांशोः । शमातपत्रेण निवारितोष्णः सदाध्यतिष्ठत्प्रतिमोरुयोगः ॥६३ इरम्मदोद्गारिभिरुग्रनादैर्धारानिपातः स्थगिताष्टदिक्कैः । विद्युदृशा प्रावृषि वीक्ष्यमाणो घनाघनैरास्त स वृक्षमूले ॥६४ प्रालेयपातक्षत पद्मखण्डे माघे शयानो बहिरेकपार्श्वम् ।
यामिनीरप्यनयत्रियामा बलेन धीरो धृतिकम्बलस्य ॥ ६५ महोपवा सान्विविधानशेषान्प्रकुर्वतस्तस्य यथोक्तमार्गम् ।
तनुत्वं तनुरेव बाढं न धैर्यमौदार्यसमन्वितस्य ॥६६ समुद्धरिष्यामि कथं निमग्नमात्मानमस्माद्भवखञ्जनान्तात् । संचिन्तयन्नित्यगमत्प्रमादं न जुष्टयोगः स वशीकृताक्षः ॥६७ व्यपेतशङ्को मुनिरस्तकाक्षो दूरीकृतात्मा विचिकित्सया च । सम्यक्त्वशुद्धि निरवद्यभावः स भावयामास यथोक्तमार्गे ॥६८ ज्ञानं च तस्य क्रियया निकामं यथोक्तया प्रत्यहमादृतात्मा । चारित्रमप्यात्मबलानुरूपं द्विषट्कारं च तपोऽन्वतिष्ठत् ॥६९
प्राप्त कर सदा साधु के समस्त उत्तर गुणों की उपासना करने लगा ।। ६२ ॥ जिसमें तीव्र गर्मी से समस्त प्राणी आकुल रहते हैं ऐसी ग्रीष्म ऋतु में वह पर्वत की शिखर पर सूर्य के सन्मुख प्रशमभावरूपी छत्र के द्वारा उष्णता का निवारण करता हुआ प्रतिमा नामक विशाल योग लेकर सदा स्थित रहता था || ६३ ॥ वज्र को उगलने वाले, भयंकर गर्जना से सहित तथा धाराओं के निपात से आठों दिशाओं को आच्छादित करने वाले मेघ बिजली रूपी दृष्टि के द्वारा जिसे देखा करते थे ऐसा वह तपस्वी वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे बैठा करता था ॥ ६४ ॥ वह धीर वीर, धैर्य रूपी कम्बल के बल से हिमपात के कारण जब कमलों का समूह नष्ट हो जाता है ऐसे माघ के महीने में बाहर एक करवट से सोता हुआ बड़ी-बड़ी रात्रियों को व्यतीत करता था ॥ ६५ ॥ नाना प्रकार के समस्त बड़े-बड़े उपवासों को विधिपूर्वक करने वाले उन महत्त्वशाली मुनि का शरीर हो अत्यन्त कृशता को प्राप्त हुआ था धैर्य नहीं ॥ ६६ ॥ प्रीतिपूर्वक धारण किये हुए प्रतिमादि योगों के द्वारा जिनने अपनी इन्द्रियों को वश कर लिया था ऐसे वे मुनि डूबे हुए अपने आपको में इस संसार रूप कीचड़ से किस प्रकार निकलूंगा ऐसा विचार करते हुए प्रमाद को प्राप्त नहीं होते थे || ६७ ॥ जिनकी शङ्का नष्ट हो गई थी, आकाङ्क्षा अस्त हो गई थी, विचिकित्सा-ग्लानि से जिनकी आत्मा दूर रहती थी तथा जो यथोक्त मार्ग में निर्दोष भाव रखते थे ऐसे वे मुनि सदा सम्यक्त्व शुद्धि की भावना रखते थे । भावार्थ - निःशङ्कित, निःकाङ्क्षित, निर्विचिकित्सित और अमूढदृष्टि अङ्ग को धारण करते हुए वे सदा इस बात का ध्यान रखते थे कि हमारा सम्यग्दर्शन शुद्ध रहे - उसमें शङ्का, काङ्क्षा आदि दोष न लगें ।। ६८ ।। वे प्रतिदिन आदरपूर्वक ज्ञानानुरूप शास्त्रोक्त क्रिया के द्वारा ज्ञान की अच्छी तरह आराधना करते थे, चारित्र का भी पालन करते थे, और अपने बल के अनुरूप बारह प्रकार का तप करते थे ।। ६९ ।
१. निपातेः स्थगिताष्टदिक्कः म० । २. आयासिनी ब० । ३. दुष्टयोगैः ब० । ४. मार्गे ब० ।