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________________ द्वादशः सर्गः कृशं निजाङ्गरकृशं तपोभिः स्थानं क्षमस्यैकपति क्षमायाः । परीषाणामवशं वशाक्षं वासाम्बुजं चारु चरित्रलक्ष्म्याः ॥४० श्रुतस्य सारार्थमिवात्तरूपं स्वयं दयाया इव साधुवादम् । दूरादपश्यन्मुनिमादृतात्मा स सुव्रतं सुव्रतनामधेयम् ॥४१ [ कुलकम् ] निधानमासाद्य यथा दरिद्रो जात्यन्धवन्नेत्रयुगस्य लाभात् । यति तमालोक्य मुदा तदाङ्गे निजेऽप्यमानयाविवशो बभूव ॥४२ उपेत्य हृष्टाङ्गरुहैः समन्तात्स सूचितान्तःकरणानुरागः । पर्यस्त चूडामणिना ववन्दे मूर्ध्ना मुनि कुङ्मलिताग्रहस्तः ॥४३ अच्छा शान्तविलोकितेन कर्मशयाशीर्वचसा च कामम् । अनुग्रहं तस्य चकार साधुभंव्ये मुमुक्षोर्न हि निःस्पृहा धीः ॥४४ स्थित्वाग्रतस्तस्य मुनेरदूरे विद्याधरेन्द्रो निरवद्यभावा । सप्रश्रयं प्राज्जलिरादरेण पप्रच्छ धर्म तमुदारधर्मम् ॥४५ पृष्टो मुनिस्तेन स इत्युवाच श्रेयो वचो ध्वस्तविकारवर्गम् । मिथ्यादृशां चित्तमपि प्रसह्य प्रह्लादयन्दर्शनमोहभाजाम् ॥४६ १४९ मान सुव्रतनाम के मुनिराज को बड़े आदर के साथ देखा । लाल वर्ण के शिला-पट्ट पर विराज मान वे मुनिराज ऐसे जान पड़ते थे मानो राग रूपी मल्ल को वे अपने शरीर से कृश थे, तप से अकुश थे, शान्ति के स्थान थे, षहों के विजेता थे, इन्द्रियों को वश करने वाले थे, सुन्दर चारित्र रूपी लक्ष्मी के निवास कमल थे, शास्त्र के मानो मूर्तिधारी श्रेष्ठ अर्थ थे, दया के मानो साधुवाद थे तथा उत्तम व्रतों से सहित थे ।। ३९-४१ । वह उस समय मुनिराज को देख कर, खजाना प्राप्त कर दरिद्र के समान अथवा नेत्र युगल के लाभ से जन्मान्ध मनुष्य की तरह अपने शरीर में भी न समा सकने वाले हर्ष से विवश हो गया ॥ ४२ ॥ सब ओर से प्रकट हुए रोमाञ्चों के द्वारा जिसका हार्दिक अनुराग सूचित हो रहा था तथा जिसके दोनों हाथ कुंडल के आकार थे - जिसने हाथ जोड़ रक्खे थे ऐसे उस राजा ने पास में जाकर लटकते हुए चूडामणि से युक्त मस्तक से उन मुनिराज को नमस्कार किया ॥ ४३ ॥ उन मुनिराज ने पाप को नष्ट करने वाले शान्त अवलोकन तथा 'कर्मों का क्षय हो' इस प्रकार के आशीर्वादात्मक वचन से उस पर बहुत भारी अनुग्रह किया सो ठीक ही है क्योंकि मुमुक्षु मनुष्यों की बुद्धि भव्य के विषय में निःस्पृह नहीं होती है अर्थात् मुमुक्षु मुनि भी भव्य जीव का हित चाहते हैं ॥ ४४ ॥ निर्मल अभिप्राय को धारण करने वाला विद्याधरों का राजा समीप मुनिराज के आगे खड़ा हो गया और विनय सहित हाथ जोड़ आदरपूर्वक उत्कृष्ट धर्म के धारक उन मुनि से धर्म का स्वरूप पूछने लगा ॥ ४५ ॥ पछाड़ कर उसी के ऊपर बैठे हों । क्षमा के अद्वितीय पति थे, परी उसके द्वारा पूछे गये मुनिराज, दर्शन मोह से युक्त मिथ्या दृष्टि जीवों को भी चित्त को बलपूर्वक हर्षित करते हुए विकारों के समूह को नष्ट करने वाले कल्याणकारी वचन इस प्रकार
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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