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________________ १४८ वर्धमानचरितम् अथैकदा संसृतिवासभीतस्तस्मै स राज्यं कनकध्वजाय । प्रदाय राजा सुमतेः समीपे जग्राह दीक्षां विजिताक्षवृत्तिः ॥३२ अनन्यलभ्यामपि राज्यलक्ष्मीमवाप्य नौद्धत्यमवाप धीरः। तथाहि लोके महतां विभूतिर्महीयसी नापि विकारहेतुः ॥३३ चन्द्रांशुशुभ्ररपि स प्रजासु सदानुरागं स्वगुणैश्चकार । निरत्ययं प्रत्यहमूजितश्रीरचिन्त्यरूपा महतां हि वृत्तिः॥३४ स चन्दनस्थासकवत्सुखाय प्रोत्योन्मुखानामभवन्निकामम् । दूरस्थितोऽपि प्रददाह शत्रून तपे विवस्वानिव सप्रतापः ॥३५ प्रजानुरागं विमलेव कीतिः सुयोजिता नीति रिवेप्सितार्थम् । तस्यार्थबोधं धिषणेव सूनुमजोजनद्धेमरथं प्रियासौ ॥३६ इत्थं स सांसारिकसौख्यसारं पञ्चेन्द्रियेष्टं भुवि निविवेश। प्रियाङनोत्तङ्गपयोधरान प्रमष्टवक्षः स्थलचन्दनश्रीः ॥३७ अथान्यदा मत्तचकोरनेत्रां कान्तां स्वहस्तापितचारुभूषाम् । आदाय विद्याधरराजसिंहः सुदर्शनोद्यानमियाय रन्तुम् ॥३८ तस्यैकदेशस्थितबाल पिण्डोद्रुमस्य मूले विपुलाश्मपट्टे । बालातपश्रीमुषि रागमल्लं निपात्य तस्योपरि वा निषण्णम् ॥३९ अथानन्तर एक समय संसार निवास से भयभीत, जितेन्द्रिय राजा कनकाभ ने कनकध्वज के लिये राज्य देकर सुमति मुनिराज के समीप दीक्षा ग्रहण कर ली ॥ ३२ ॥ धीर-वीर कनकध्वज अन्यजन दुर्लभ लक्ष्मी को पाकर भी गर्व को प्राप्त नहीं हुआ सो ठीक ही है क्योंकि लोक में बड़ी से बड़ी विभूति भी महापुरुषों के विकार का कारण नहीं होती ।। ३३ ॥ अत्यधिक लक्ष्मी को धारण करने वाले उस कनकध्वज ने चन्द्रमा की किरणों के समान शुक्ल होने पर भी अपने गुणों से प्रजा में सदा स्थायी अनुराग-लाल रङ्ग ( पक्ष में प्रीति ) उत्पन्न किया था सो ठीक हो है क्योंकि महापुरुषों की वृत्ति अचिन्त्य रूप होती है ॥ ३४ ॥ वह प्रीति से सन्मुख मनुष्यों के लिये चन्दन के तिलक के समान मातिशय सुख का कारण हुआ था तथा ग्रीष्म ऋतु के प्रतापी सूर्य के समान दूरवर्ती रह कर भी शत्रुओं को संतप्त करता था ॥ ३५ ॥ जिस प्रकार निर्मल कीति प्रजा के अनुराग को, अच्छी तरह प्रयोग में लाई हुई नीति अभिलषित अर्थ को और बुद्धि अर्थज्ञान को उत्पन्न करती है उसी प्रकार राजा कनकध्वज की प्रिया ने हेमरथ नामक पुत्र को उत्पन्न किया । ३६ ॥ इस प्रकार प्रिय स्त्रियों के उन्नत स्तनों के अग्रभाग से जिसके वक्षःस्थल पर लगे हुए चन्दन को शोभा पुछ गई थी ऐसा कनकध्वज पृथिवी पर पञ्चेन्द्रियों के लिये इष्ट सांसारिक श्रेष्ठ सुख का उपभोग करता था ॥ ३७॥ तदनन्तर किसी समय विद्याधरों का श्रेष्ठ राजा कनकध्वज, मत्तचकोर के समान नेत्रों वाली तथा अपने हाथ से पहिनाये हुए सुन्दर आभूषणों से युक्त कान्ता को लेकर रमण करने के लिये सुदर्शन मेरु के उद्यान में गया ॥ ३८॥ वहाँ उसने उद्यान के एक देश में स्थित छोटे से अशोक वृक्ष के नीचे बालातप की शोभा का अपहरण करने वाले विशाल शिला-पट्ट पर विराज
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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