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________________ १५० वर्धमानचरितम् धर्मो जिनेन्द्रैः सकलावबोधैरुक्तः परो जीवदयैकमूलः । स्वर्गापवर्गोरुसुखस्य हेतुः स द्विप्रकारो भवति प्रतीतः ॥४७ सागरिकोऽणुव्रतमेदतिन्नऽनागारिकः ख्यातमहाव्रतश्च । आद्यो गृहस्थैः परिपालनीयः परं परः संयमिभिर्विविक्तैः ॥४८ भद्रानयोर्मूलमुदाहरन्ति सद्दर्शनं सर्वविदो जिनेन्द्राः । तत्त्वेषु सप्तस्वपि निश्चयेन श्रद्धानमेकं तदिति प्रतीहि ॥४९ हिंसानृतस्तेय वधू व्यवायपरिग्रहेभ्यो विरतिर्यतीनाम् । सर्वात्मना तव्रतमित्त्युदीर्ण स्थूला निवृत्तिगृहमेधिनाञ्च ॥५० अनादिसांसारिक चित्र दुःखप्रवेकवावानलसंक्षयाय। नान्योऽस्त्युपायो नितरायमुष्मादलोऽत्र यत्नः पुरुषेण कार्यः ॥५१ मिथ्यात्वयोगाविरतिप्रमानैः कषायदोषैश्च बहुप्रकारैः । बध्नाति कर्माष्टविधं सदात्मा संसार वासस्य हि कर्म हेतुः ॥५२ सदृष्टिसज्जानतपश्चरित्रैरुन्मूल्यते कर्मवनं समूलान् । तेषु स्थितं मुक्तिवधूः पुमांसं समुत्सुकेव स्वयमभ्युपैति ॥५३ अज्ञानमूढः स्वपरोपतापानपीन्द्रियार्थान् सुखमित्युपास्ते। सुदुःकृतान्स्वात्मविदभ्युपेतुं बिभेति तान्दृष्टिविषानिवाहीन् ॥५४ कहने लगे ॥ ४६ ॥ सर्वज्ञ जिनेन्द्र ने जीव दयामूलक, तथा स्वर्ग और मोक्ष सम्बन्धी विपुल सुख के कारण भूत जिस उत्कृष्ट धर्म का कथन किया है वह दो प्रकार का प्रसिद्ध है ।। ४७ ॥ अणुव्रतों के भेद से युक्त पहला सागारिक धर्म है जो कि गृहस्थों के द्वारा पालन करने योग्य है और दूसरा प्रसिद्ध महाव्रतों से युक्त अत्यन्त उत्कृष्ट अनागारिक धर्म है जो कि पवित्र मुनियों के द्वारा धारण करने योग्य है ॥ ४८ ।। हे भद्र ! इन दोनों धर्मों का मूल कारण सम्यग्दर्शन है ऐसा सर्वज्ञ जिनेन्द्र भगवान् कहते हैं। तथा सातों तत्त्वों का निश्चय से अद्वितीय श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है ऐसी प्रतीति करो ।। ४९ ॥ हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों से मुनियों की जो सर्वथा निवृत्ति है वह व्रत कहा गया है। गृहस्थों की इन पापों से स्थूल निवृत्ति होती है ॥ ५० ।। अनादि संसार सम्बन्धी नाना दुःखसमूहरूपी दावानल का अच्छी तरह क्षय करने के लिये इस धर्म से बढ़कर दूसरा उपाय नहीं है इसलिये पुरुष को इसमें यत्न करना चाहिये ॥ ५१ ॥ यह जीव सदा मिथ्यात्व, योग, अविरति, प्रमाद और बहुत प्रकार के कषाय सम्बन्धी दोषों से आठ प्रकार कर्म बाँधता रहता है सो ठीक ही है क्योंकि कर्म ही संसार वास का कारण है ।। ५२॥ सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्तप और सम्यक्चारित्र के द्वारा कर्म रूपी वन जड सहित उखाड दिया जाता है। उन सम्यग्दर्शनादि में स्थित रहने वाले पुरुष को मुक्ति रूपी स्त्री उत्कण्ठित की तरह स्वयं ही प्राप्त हो जाती है ॥ ५३ ॥ इन्द्रियों के विषय यद्यपि निज और पर को संताप देने वाले हैं तथा अत्यधिक पाप के कारण हैं तो भी अज्ञान से मोह को प्राप्त हुआ पुरुष 'ये सुख है' ऐसा मान कर उनकी उपासना करता है परन्तु स्वात्मज्ञानी जीव उन्हें दृष्टिविष साँप जैसा मान कर
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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