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वर्धमानचरितम्
अतोऽनुरूपं स्वयमेव कन्यका वरं वृणीतां स्वधिया स्वयंवरे। चिरं प्रवृत्तो नितरामयं विधिविधिश्च साफल्यमुपैतु तत्कृतः॥६८ विचार्य कार्यान्तरमित्युदारधीरुदीर्य रामो विरराम मन्त्रिभिः । समं तथेति प्रतिपद्य तद्विभुः स्वयंवरं दिक्षु चरैरघोषयत् ॥६९ अथार्ककोतिः सहसा निशम्य तत्सतं गहीत्वामिततेजसं संतीम । सुतां सुतारां च मनोरमाकृति सहाययौ पोदनमम्बरेचरैः ॥७० अवाप्य राज्ञां शिबिरैः समन्ततः प्रवेशदेशेषु परिष्कृतं पुरम् । स्वयंवरोद्वाहसमुच्छ्रितैर्ध्वजैः स संकुलं राजकुलं समासदत् ॥७१ ससंभ्रमं प्रत्युदितौ बलाच्युतौ विलोक्य कक्षावलितोरणाद् बहिः। ननाम साम्राज्यकृतोः क्रमद्वयं पुरा स ताभ्यां परिरम्भणाचितः ॥७२ तमर्ककोतिस्तनयं निरीक्ष्य तौ स्वपादननं कमनीयतावधिम् । सुतां च कान्त्या जितनागकन्यकां बभूवतुविस्मयनिश्चलेक्षणौ ॥७३ कुलध्वजः श्रीविजयः स्वमातुलं समं ववन्दे विजयेन तत्क्षणम् ।
विलोक्य तौ सोऽप्यभवन्मुदाकुलः सुखं किमन्यन्निजबन्धुदर्शनात् ॥७४ हो है; किन्तु पतियों के प्रेम-सम्बन्ध का कारण वह एक पृथक ही दसरा गण है ।। ६७ । इसलिये कन्या स्वयंवर में अपने अनुरूप पति को अपनी बुद्धि से स्वयं ही वर ले। यह स्वयंवर की विधि चिरकाल से अत्यन्त प्रचलित है। उसके द्वारा को हुई यह विधि सफलता को प्राप्त हो ।। ६८॥
उदारबुद्धि बलभद्र ऐसा कहकर तथा मन्त्रियों के साथ अन्य कार्य का विचार कर चुप हो गए। 'आपने जो कहा है वह वैसा ही है। इस तरह स्वीकृत कर त्रिपष्ठ ने दतों के द्वारा सब दिशाओं में स्वयंवर की घोषणा करा दी ॥ ६९ ॥ तदनन्तर ज्वलनजटी का पुत्र अर्ककोति उस समाचार को सुन शीघ्र ही अपने अमिततेज नामक पुत्र और सती एवं सुन्दर सुतारा नामक पुत्री को लेकर विद्याधरों के साथ पोदनपुर आ पहुँचा ॥ ७० ॥ चारों ओर गोपुरों के समीप ठहरे हुए राजाओं के शिबिरों से परिष्कृत नगर को प्राप्त कर वह स्वयंवर-महोत्सव के कारण फहराई हुई ध्वजाओं से व्याप्त राजद्वार को प्राप्त हुआ॥७१ ॥ महलों के तोरणद्वार के बाहर हर्षपूर्वक अगवानी के लिये आये हुए बलभद्र और नारायण को देखकर उसने उन दोनों के चरणों में नमस्कार के पूर्व बलभद्र और नारायण ने आलिङ्गन के द्वारा उसका सत्कार किया था ॥ ७२ ॥ अपने चरणों में नम्र, सुन्दरता की चरम सीमा स्वरूप अर्ककीति के उस पुत्र तथा अपनी कान्ति से नाग कन्या को जीतनेवालो पुत्री को देखकर बलभद्र और नारायण आश्चर्य से निश्चल नेत्र हो गये। भावार्थ-उन दोनों की सुन्दरता देख नेत्रों के पलक गिराना भी भूल गये॥ ७३ ।। कुल को ध्वजारूप श्रीविजय ने छोटे भाई विजय के साथ अपने मामा अर्ककीति को नमस्कार किया। उन्हें देख अर्ककीति भी हर्षविभोर हो गया सो ठोक ही है क्योंकि अपने बन्धुजनों के दर्शन के सिवाय दूसरा सुख क्या है ? ॥ ७४ ॥
१. स्वमतं म० । २. स तम् म० । ३. प्रवेशवेशेषु म ।