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दशमः सर्गः
१२९ पुरस्सरीभूतबलाच्युतस्ततः प्रविश्य राजालयमुत्सवाकुलम् । स्वयंप्रभा पादनतां च सस्नुषा यथोचिताशीर्वचनै रपूजयत् ॥७५ तदा सुतारामिततेजसौ समं निरीक्ष्य पादावनतौ स्वयंप्रभा। मनोरथेनात्मसुतद्वयेन' तौ नियोजयामास विना स्वयंवरम् ॥७६ स्वमातृसंकल्पवशीकृतेव सा निबद्धभावामिततेजसि ध्रुवम् । अभूत्सुता चक्रधरस्य योषितां मनो विजानाति हि पूर्ववल्लभम् ॥७७ सुतारया श्रीविजयस्य मानसं समाददे तेन तदीयमप्यलम् । विजिसितापाङ्गनिरीक्षितैर्मुहुर्भवान्तरस्स्नेहरसो हि तादृशः ॥७८ अथाह्नि शुद्ध सुविशुद्धलक्षणा सखोजनैः कल्पितसर्वमङ्गला। स्वयंवरस्थानमगादुडुप्रभा मनोरथान् व्यर्थयितुं महीभुजाम् ॥७९ अतीत्य सर्वान्विधिना वयस्यया निवेदितान्राजसुतान् क्रमेण सा। ह्रिया परावृत्य मुखं व्यसज्जयच्चिराय कण्ठेऽमिततेजसः स्रजम् ॥८० ततः सुतारा प्रविहाय पाथिवान्स्वयंकरे श्रीविजयस्य बन्धुरम।
बबन्ध गाढं कुमुमस्रजा गलं मनोजपाशेन मनोऽप्यलक्षितम् ॥८१ तदनन्तर बलभद्र और नारायण जिसके आगे-आगे चल रहे थे ऐसे अर्ककीर्ति ने उत्सव से परिपूर्ण राजमहल में प्रवेश किया। वहाँ पुत्रबधूसहित चरणों में नम्रीभूत स्वयंप्रभा को देख उसे यथायोग्य आशीर्वादों से सम्मानित किया ॥ ७५ ।। साथ ही साथ स्वयंप्रभा ने चरणों में नम्रीभूत सुतारा और अमिततेज को देख स्वयंवर के बिना ही मनोरथग हो उन्हें अपने पत्र और पुत्री के साथ संयुक्त कराया। भावार्थ-स्वयंप्रभा के मन में ऐसा विचार हुआ कि सुतारा का अपने पुत्र के साथ और अमिततेज के साथ अपनी पुत्री का सम्बन्ध हो तो उत्तम होगा ॥७६।। चक्रवर्ती की पुत्री अपनी माता के संकल्प के वशीभूत होकर ही मानो अमिततेज में अनुराग करने लगी थी सो ठीक ही है, क्योंकि स्त्रियों का मन अपने पूर्वपति को जान लेता है ।। ७७ ॥ सतारा ने श्रीविजय का मन ग्रहण कर लिया और श्रीविजय ने भी कुटिल कटाक्षों के अवलोकन से उसका मन हर लिया सो ठीक ही है क्योंकि अन्यभवों का स्नेह रस वैसा ही होता है ॥ ७८ ॥
तदनन्तर जो अन्यत्र विशुद्ध लक्षणों से युक्त थी तथा सखीजनों ने जिसका सर्वमङ्गलाचार किया था ऐसी ज्योतिःप्रभा नामक पुत्री किसी शुभ दिन राजाओं के मनोरथों को व्यर्थ करने के लिये स्वयंवर के स्थान पर गई ॥ ७९ ॥ वहाँ सखी के द्वारा विधिपूर्वक जिनका परिचय दिया गया था ऐसे समस्त राजकुमारों का क्रम से उल्लङ्घन कर उसने चिरकाल बाद अमिततेज के गले में माला डाल दी। माला डालते समय लज्जा से उसने अपना मुख फेर लिया था । ८०॥ तदनन्तर सुतारा ने स्वयंवर में राजाओं को छोड़कर श्रीविजय के सुन्दरकण्ठ को फूलों की माला से और दृष्टि अगोचर होने पर भी मन को कामपाश से अच्छी तरह बाँध लिया ।। ८१ ।।
१. सुतुद्वये तो म० । २. विजीहिता- म० । ३, लक्षणे म० । ४. स्वयम् म० ।