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________________ नवमः सर्गः स्वयं परिच्छेत्तुमपारमन्नयं नयप्रवीणैः सचिवैः समन्वितः । उपह्वरे कृत्यविनिश्चयेच्छ्या प्रणम्य संकर्षणमित्यभाषत ॥ ६० पितुः समक्षेऽपि भवान्धुरन्धरः कुलस्य नस्तद्विगमे विशेषतः । करोति लोकस्य रविप्रभेव ते तमोपहा धीः सकलार्थ दर्शनम् ॥६१ अतः समाचक्ष्व विचिन्त्य तत्त्वतो भवत्सुतायाः सदृशं ममार्य तम् । कुलेन रूपेण कलागुणादिभिः पतिं नरेन्द्रेषु नभश्चरेषु च ॥६२ उदीरितायामिति वाचि चक्रिणा ततो हलीत्थं निजगाद भारतीम् । मरीचिभिः कुन्दसितैर्द्विजन्मनां प्रवृद्धहारांशुपिनद्धकन्धरः ॥६३ पतिः कनीयानपि यः श्रियाधिको महात्मनां नात्र वयः समीक्ष्यते । भवादृशानामत एव नो भवान् गतिश्च चक्षुश्च कुलप्रदीपकः ॥६४ यथा न नक्षत्रमुदीक्ष्यते परं नभस्तले चन्द्रकलासमाकृति । तथापि न क्षत्रमपीह भारते भवत्सुताया न समस्ति रूपतः ॥६५ चिरं स्वबुद्धया परिचिन्त्य यत्नतो वयं दिशामो यदि तामनिन्दिताम् । नृपेषु कस्मैचिदतोऽपि किं तयोः समोऽनुरागो भवतीत्यनिश्चयः ॥ ६६ न रूपमात्र न कला न यौवनं भवेन्न सौभाग्य निमित्तमाकृतिः । प्रियेषु यत्प्रेम निबन्धनोचितं गुणान्तरं तत्पृथगेव योषिताम् ॥६७ १२७ कान्ति से उत्कृष्ट वर कौन है' इस प्रकार बार-बार चिन्ता करता हुआ त्रिपृष्ठ नारायण दुःखी हुआ ।। ५९ ।। नीतिनिपुण मन्त्रियों से युक्त त्रिपृष्ठ, जब स्वयं निर्णय करने के लिये समर्थ नहीं हो सका तब उसने कार्यं के निश्चय की इच्छा से एकान्त में बलभद्र को प्रणाम कर इस प्रकार कहा ।। ६० ।। पिता के समक्ष भी आप हमारे कुल के धुरन्धर थे फिर उनके अभाव में तो विशेष कर आप ही धुरन्धर हैं । सूर्य की प्रभा के समान जगत् के अन्धकार ( पक्ष में अज्ञान ) को नष्ट करनेवाली आपकी बुद्धि समस्त पदार्थों का दर्शन कराती है ॥ ६१ ॥ इसलिये हे आर्य ! आप परमार्थं से विचार कर भूमिगोचरियों अथवा विद्याधरों में कुल, रूप तथा कला आदि गुणों से अपनी पुत्री के अनुरूप पति बतलाइये || ६२ ।। तदनन्तर चक्रवर्ती के द्वारा इस प्रकार के वचन कहे जाने पर बलभद्र ने, कुन्द के फूल के समान सफेद दाँतों की किरणों से वृद्धि को प्राप्त हुई हार की किरणों से ग्रीवा को युक्त करते हुए यह वचन कहे ॥ ६३ ॥ क्योंकि इस लोक में आप जैसे महात्माओं की अवस्था नहीं देखी जाती इसलिये अवस्था से छोटे होने पर भी लक्ष्मी से सम्पन्न आप ही हम लोगों के स्वामी हैं, गति हैं, चक्षुस्वरूप हैं तथा कुल को प्रदीप्त करनेवाले हैं ।। ६४ ।। जिस प्रकार गगनतल में चन्द्रकला के समान आकारवाला कोई दूसरा नक्षत्र नहीं दिखाई देता इसी प्रकार इस भरत क्षेत्र में सौन्दर्य की अपेक्षा आपकी पुत्री के योग्य, कोई क्षत्रिय भी नहीं दिखाई देता है ।। ६५ ।। यदि चिरकाल तक यत्नपूर्वक अपनी बुद्धि से विचारकर राजाओं में से किसी के लिए उस प्रशंसनीय कन्या को देते हैं तो उनमें समान प्रेम होगा इसका निश्चय नहीं है ।। ६६ ।। स्त्रियों के सौभाग्य का निमित्त न रूप है, न कला है, न योवन है और न आकृति १. धिया प्रवीणैः ब० । २. समन्वितम् ब० । ३. दर्शिनी म० । ४ भवतीति निश्चयः म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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