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________________ १२६ वर्धमानचरितम् समग्रपञ्चेन्द्रियशक्तिसंयुतः कुलाग्रणीस्तत्र कुशाग्रधीरहम् । हिताहितज्ञः समभूवमीशिता वसुन्धरायाश्च समुद्रवाससः ॥५२ महात्मनां सीररथाङ्गधारिणां सदा वशौ प्राग्रहरौ च मे सुतौ । युवामभूतां खलु जन्मनः फलं किमस्त्यतोऽन्यद्भवि पुण्यशालिनः ॥५३ अपत्यवक्त्राम्बुजवीक्षणावधिश्चिरन्तनानां गृहवासवासिनाम् । ननु प्रसिद्धादिजिनेन्द्रसन्ततः कुलस्थितिः सा विफलीकृता मया ॥५४ अतोऽनु गच्छाम्यधुनापि पावनों दिगम्बराणां पदवी यथाक्रमम् । विमुक्तिसौख्यस्पृहयैव वामहं निराकरोमि प्रणयं च दुस्त्यजम् ॥५५ निगद्य पुत्राविति पुत्रवत्सलः प्रजापतिस्तन्मुकुटांशुरज्जुभिः । निबद्धपादोऽपि ययौ तपोवनं निबन्धनं नास्ति हि भव्यचेतसाम् ॥५६ प्रणम्य पादौ वशिनामधीशितुर्यथार्थनाम्नः पिहितास्रवस्य सः। नरेश्वरैः सप्तशतैः परां दधौ धुरं मुनीनां सह शान्तमानसैः॥५७ ययोक्तमार्गेण सुदुश्चरं परं तपो विधायाप्रतिमं प्रजापतिः । निरस्य कष्टिकपाशबन्धनं जगाम सिद्धि निरुपद्रवश्रियम् ॥५८ अथान्यदा यौवनसंपदा सुतां विगाह्यमानामवलोक्य माधवः । तताम कोऽस्याः सदृशो भवेद्रुचा वरो वरीयानिति चिन्तयन्मुहुः॥५९ की शक्ति से सम्पन्न, कुलका प्रमुख, तीक्ष्णबुद्धि, हित-अहित का ज्ञाता और समुद्रान्त पृथिवी का स्वामी हुआ॥५२॥ जो आगे होनेवाले श्रेष्ठ बलभद्र और नारायणोंमे प्रथम हैं तथा सदा आज्ञाकारी रहे हैं ऐसे तुम दोनों मेरे पुत्र हुए, इससे बढ़कर पृथिवी पर पुण्यशाली मनुष्यके जन्म लेने का फल और क्या हो सकता है ? ।।५३।। आदि जिनेन्द्र की सन्तति में पूर्ववर्ती गृहस्थों की जो कुलस्थिति संतान का मुख कमल देखने तक रही है उसे मैंने निष्फल कर दिया है। भावार्थभगवान् वृषभदेव के कुल में होनेवाले पूर्व पुरुषों की यह रीति रही है कि जब तक वे पुत्र का मखकमल न देख लें तभी तक गृहस्थाश्रम में रहे, पुत्र का मुखकमल' देखते ही मुनिदीक्षा ल लेते थे परन्तु मैंने उस रीति को निष्फल किया है अर्थात् आप दोनों के सब प्रकार से शक्तिसंपन्न होने पर भी मैंने अभी तक मुनिदीक्षा नहीं ली है ।। ५४ । इसलिये अब में दिगम्बरों के पवित्र मार्ग का यथाक्रम से अनुसरण करता हूँ। मोक्ष सुख को इच्छा से ही मैं तुम दोनों के कठिनाई से छोड़ने योग्य स्नेह को छोड़ रहा हूँ ॥ ५५ ॥ पुत्रवत्सल राजा प्रजापति पुत्रों से इस प्रकार कह कर उनके मुकुट-सम्बन्धी किरणरूपी रस्सी से बद्धचरण होने पर भी तपोवन को चले गये सो ठोक ही है क्योंकि भव्य जीवों के चित्त बाँधनेवाला कोई नहीं है ॥ ५६ । उन्होंने जितेन्द्रियों के स्वामी, सार्थक नामवाले पिहितास्रव मुनि के चरणों को प्रणाम कर सात सौ शान्तचित्त राजाओं के साथ मुनियों की धुरा धारण कर लो-मुनिदीक्षा ले ली ॥ ५७ ॥ प्रजापति मुनिराज यथोक्तमार्ग से अत्यन्त कठिन, उत्कृष्ट और अनुपम तप करके तथा अष्टकर्मरूपी पाश के बन्धन को नष्ट कर निरुपद्रव लक्ष्मी से युक्त सिद्धि को प्राप्त हुए ॥ ५८॥ तदनन्तर किसी अन्य समय पुत्री को यौवनरूपी सम्पत्ति से युक्त देख, 'इसके अनुरूप
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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