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________________ दसमः सर्गः अवाप्य सम्यक्त्वमतीव दुर्लभं पुनर्भवक्लेशविनाशनक्षमम् । वत कोऽन्योऽहमिव प्रमत्तधीः सुनिःफलं जन्म विना तपस्यया ॥४५ निराकरोत्यक्ष बलं बलीयसी जरा न यावत्स्वबलं च देहतः । करोमि तावत्परिशेषमायुषस्तपस्ययाहं सफलं यथोक्तया ॥४६ चिरं विचिन्त्यैवमुदारधी 'स्ततः सुतौ समाहूय तदा प्रजापतिः । मुदायवादः क इति स्वपादयोर्नताववादीदिति रामकेशवौ ॥४७ इयं भवद्भिः स्थितिराजवंजवी पुरःसरैः किं विदिता न धीमताम् । उषः सुरेन्द्रायुधमेघविद्युतां विनश्वरी श्रीरिव तत्क्षणान्तरे ॥४८ समागमाः सापगमा विभूतयो विपन्निमित्ता वपुरामयात्मकम् । सुदुःखमूलं सुखमाशु यौवनं विलीयते जन्म च मृत्युकारणम् ॥४९ अनात्मनीने कुशलः क्रियाविधौ निसर्गतोऽयं स्वहिते जडः पुमान् । द्वयं यदीदं विपरीतमात्मनो भवेत्तदा मुक्तिरवाप्यते न कैः ॥५० अनेकसंख्यासु कुयोनिषु भ्रमन्ननादिकालं कथमप्यदश्चिरात् । अयं जनः प्राप्य नृजन्म दुर्लभं प्रधानमिक्ष्वाकुकुलं समासदत् ॥५१ १२५ के विना जन्म को निष्फल धारण करेगा ||४५ ॥ जब तक यह अत्यन्त बलवान् वृद्धावस्था इन्द्रियबल तथा आत्मबल को शरीर से दूर नहीं करती है तबतक मैं आयु के अवशिष्टभाग को यथोक्त तपस्या के द्वारा सफल करता हूँ । भावार्थ - इन्द्रियबल तथा मनोबल के ठीक रहते हुए मैं तपस्या में प्रवृत्त होता हूँ ॥४६॥ तदनन्तर चिरकाल तक ऐसा विचार कर राजा प्रजापति ने उसी समय दोनों पुत्रों को बुलाया | क्या आज्ञा है ? इस प्रकार हर्ष से अपनें चरणों में नमस्कार करते समय उन बलराम और नारायण से राजा ने इस प्रकार कहा ||४७|| विद्वानों में अग्रसर रहनेवाले आप लोगों के द्वारा क्या यह संसार की स्थिति अज्ञात है । यह संसार की स्थिति, प्रातःकाल, इन्द्रधनुष, मेघ और बिजली की लक्ष्मी के समान क्षणभर में नष्ट हो जानेवाली है ॥४८॥ | संयोगवियोग से युक्त विभूतियां विपत्तिका निमित्त है, शरीर रोगमय है, सुख दुःख का मूल है, यौवन शीघ्र नष्ट हो है और जन्म मृत्यु का कारण है ||४९ || यह पुरुष आत्मा के लिए अहितकारी कार्य करने में स्वभाव से कुशल है और आत्मा का हित करने वाले कार्य में अज्ञानी है । यदि यह दोनों इससे विपरीत हो जावें तो आत्मा की मुक्ति किन पुरुषों के द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती । अर्थात् सभी के द्वारा प्राप्त की जा सकती है । भावार्थ - यदि यह जीव आत्महितकारी कार्य में संलग्न हो जावे और आत्म अहितकारी कार्य से निवृत्त हो जावे मुक्ति प्राप्त करना कठिन नहीं है ॥५०॥ अनेक कुयोनियों में अनादि काल से भ्रमण करता हुआ यह चिरकाल बाद किसी तरह इस दुर्लभ मनुष्य जन्म और प्रधान इक्ष्वाकुवंश को प्राप्त हुआ हूँ ॥५१॥ वहां मैं समस्त पञ्चेन्द्रियों १. धीरतः म० । २. मुदाववाहः ब० । ३. यदीयं म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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