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वर्धमानचरितम्
इमे मम प्राणसमाः सनाभयः सुतोऽयमिष्टः सुहृदेष वल्लभः । इयं च भार्या धनमेतदित्यहो विचेतनस्ताम्यति चिन्तयन्मुधा ॥३७ शुभाशुभं कर्मफलं समश्नुते ध्रुवं पुमान्प्राक्तनमेक एव हि। अतः स्वतोऽन्यः स्वजनः परोऽपि वा न विद्यते कश्चन देहधारिणाम् ॥३८ किमिन्द्रियार्थैः पुरुषो न विस्रसा प्रहीयते कालवशादुपागतः । इदं तु चित्रं न जहाति तान्स्वयं समुज्झितोऽपि प्रसभं जरातुरः ॥३९ अशक्तमादौ मधुरं मनोहरं विपाककाले बहुदुःखकारणम् । उशन्ति सन्तो विषयोद्भवं सुखं सुपवकिपाकफलाशनं यथा ॥४० सचेतनः स्थातुमिहोत्सहेत को वृथैव ताम्यन्विषयेच्छया गृहे । सुदुस्तरस्यापि जिनेन्द्रशासने भवाम्बुधेरुत्तरणप्लवे सति ॥४१ निवृत्तरागप्रसरस्य यत्सुखं शमात्मकं शाश्वतमात्मनि स्थितम् । दुरन्तमोहानलतप्तचेतसः किमस्ति तस्यैकलवोऽपि रागिणः ॥४२ जिनोदितं तत्त्वमवेत्य तत्त्वतः समीहते यो विषयान्निषेवितुम् । पिबत्यसौ जीविततृष्णया विषं विहाय पाणावमृतं विचेतनः ॥४३ जरागृहीतं नवयौवनं यथा निवर्तते नैव पुनः कदाचन । तथायुरारोग्यमपि प्रतिक्षणं विलुप्यमानं नियतेन मृत्युना ॥४४
प्राणी व्यर्थ ही दुखी होता है ॥३६॥ निश्चित हो यह प्राणी पूर्वभव में किये हुए अपने शुभ-अशुभ कर्म के फल को अकेला ही भोगता है इसलिए अपने आप से अतिरिक्त कोई दूसरा प्राणियों का न स्वजन है और न पर जन है ॥३७॥ क्या कालवश मृत्यु को प्राप्त हुआ पुरुष अपने आप इन्द्रियों को विषयों द्वारा नहीं छोड़ दिया जाता? अवश्य छोड़ दिया जाता है । आश्चर्य तो यह है कि इन्द्रिय विषयों के द्वारा हठपूर्वक छोड़े जाने पर भी यह वृद्ध पुरुष उन्हें स्वयं नहीं छोड़ता है ॥३९।। सत्पुः रुष, विषयों से उत्पन्न होनेवाले सुख की, अच्छी तरह परिपाक को प्राप्त हए किंपाक फल के भोजन के समान प्रारम्भ में मधुर और मनोहर तथा विपाक काल में अनेक दुःखों का कारण मानते हैं ॥४०॥ अत्यन्त दुस्तर संसार सागर से पार करानेवाली नौका के समान जिनधर्म के रहते हुए भी ऐसा कौन सचेतन प्राणी होगा जो विषयों की इच्छा से दुःखी होता हुआ व्यर्थ ही घर में ठहरने के लिए उत्साहित होगा ॥४१॥ राग के प्रसार से रहित मनुष्य को जो शान्तिमय, स्थायी और आत्मिक सुख प्राप्त होता है क्या उसका एक अंश भी दुःखदायफ मोहाग्नि से संतप्त चित्तवाले रागी मनुष्य को प्राप्त होता है ? अर्थात् नहीं होता।।४२।। जो मनुष्य परमार्थ रूप से जिनेन्द्र-प्रणीत तत्त्व को जानकर विषय-सेवन की इच्छा करता है वह अज्ञानी हाथ में स्थित अमृत को छोड़ कर जीवित रहने की तृष्णा से विष को पीता है ॥४३।। जिस प्रकार वृद्धावस्था से ग्रहण किया हुआ नवयौवन फिर कभी लौट कर नहीं आता उसी प्रकार नियमित मृत्यु के द्वारा प्रत्येक क्षण लुप्त होने वाली आयु और आरोग्य भी कभी लौट कर नहीं आता ॥४४॥ पुनर्जन्म का क्लेश नष्ट करने में समर्थ अत्यन्त दुर्लभ सम्यक्त्व को पाकर मेरे समान दूसरा कौन प्रमादो मनुष्य होगा जो तपस्या