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________________ नवमः सर्गः १२३ पितुर्गुणांस्तावनुचक्रतुः सुतौ वपुविशेषेण समं समन्ततः । विजित्य कान्त्या तनुजा स्वमातरं बभव शीलेन समा च केवलम ॥३० नरेन्द्र विद्यासु गजाधिरोहणे तुरङ्गपृष्ठे च समस्तहेतिषु । अवापतुस्तौ नितरां च कौशलं कलासु सर्वासु च सापि कन्यका ॥३१ अथैकदा दूतमुखान्नभःस्पृशां निशम्य नाथं तपसि प्रतिष्ठितम् । प्रजापतिस्तत्क्षणमित्यचिन्तयद्विधाय बुद्धि विषयेषु निःस्पृहाम् ॥३२ स एव धन्यो रथनूपुरेश्वरो मतिश्च तस्यैव हितानुबन्धिनी। सुखेन तृष्णामयवज्रपञ्जराद् विनिर्ययौ यो दुरतिक्रमादपि ॥३३ अशेषभावाः क्षणभङ्गरा न कि किमस्ति लेशोऽपि सुखस्य संसृतौ । तथापि जीवः स्वहिते न वर्तते करोत्यकार्य बत बोधदुर्विधः ॥३४ यथा यथायुगलति प्रतिक्षणं तथा तथा प्राणितुमेव वाञ्छति । अशक्तमात्मा बिषयैर्वशीकृतो न जायते तृप्तिरथास्य तैरपि ॥३५ नंदीसहौरिव यादसां पतिस्तनूनपादिन्धनसंचयैरिव । चिराय संतुष्यति कामघस्मरो न कामभोगैः पुरुषो हि जातुचित् ॥३६ पुत्र शरीर की विशेषता के साथ सब ओर से पिता के गुणों का अनुकरण कर रहे थे तथा पुत्री कान्ति के द्वारा अपनी माता को जीत कर उ शील से माता के समान थी॥३०॥ वह मात्र शासन राजविद्याओं में, हाथी की सवारी में, घोड़े की पीठ पर चढ़ने में तथा समस्त शस्त्रों में वे दोनों पत्र अत्यन्त कुशलता को प्राप्त हो गये। इसी प्रकार वह कन्या भी समस्त कलाओं में चतराई को प्राप्त हो गयी ॥३१॥ तदनन्तर राजा प्रजापति ने एक समय दूत के मुख से सुना कि विद्याधरों का राजा ज्वलनजटो तप में प्रतिष्ठित हो गया है अर्थात् उसने मुनि दीक्षा ले ली है, यह सुनते ही वह भी तत्काल बुद्धि को विषयों में निःस्पृह कर इस प्रकार विचार करने लगा ॥३१॥ वह रथनुपुर का राजा ज्वलनजटी ही धन्य है और उसी की बुद्धि हित में लग रही है जो कि इस अत्यन्त कठिन तृष्णा रूपी वज्रमय पिंजड़े से अनायास निकल गया है ॥३२।। समस्त पदार्थ क्या क्षणभङ्गुर नहीं हैं । संसार से क्या सुख का लेश भी है। फिर भी खेद है कि यह ज्ञान का दरिद्र जीव आत्महित में प्रवृत्ति नहीं करता, किन्तु इसके विपरीत अकार्य करता है।३३।। प्रत्येक समय जैसे जैसे आयु गलती जाती है वैसे वैसे यह जीवित रहने की ही इच्छा करता है। यह जीव असमर्थ हो विषयों के वशीभूत हो रहा है परन्तु उन विषयों से भी इसे तृप्ति नहीं होती ।।३४।। जिस प्रकार हजारों नदियों से समुद्र, और ईधन के समूह से अग्नि संतुष्ट नहीं होता उसी प्रकार काम में आसक्त हुआ यह पुरुष चिर काल बाद भी काम भोगों से कभी संतुष्ट नहीं होता ॥३५॥ ये मेरे प्राणतुल्य भाई हैं, यह इष्ट पुत्र है, यह प्रिय मित्र है, यह स्त्री है और यह धन है इस प्रकार चिन्तन करता हुआ यह अज्ञानी १. दहनस्तृणकाष्ठसंचयैरपि तृप्येदुदधिर्नदीशतैः । न तु कामसुखैः पुमानहो बलवत्ता खलु कापि कर्मणः ॥७२॥ -चन्द्रप्रभचरित सर्ग १
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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